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नासौ निर्जराहेतुः यथा पुद् गलद्रव्यगतरूपादयः । अनात्मपरिणामाश्च शीतादयः क्षुत्पिपासादयो दुःखहेतवः, न तु दुःखं, तत् किमुच्यते क्षुत्पिपासादयः परीपहा इति । नैव दोषः । क्षुदादिजन्यदुःखविषयत्वात् क्षुदादिशब्दानां । तेन क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दशमशकनाग्न्यादीनां परीषहवाचोयुक्ति नं विरुध्यते । 'सीदुण्हदं समसयादियाण' शीतोष्णदंसमशकादीनां । 'परिस्सहाणं उरो दिष्णो' परीषहाणां उरो दत्तं । केन ? 'सोदादिनिवारणगे' शीतादीनां निषेधकान् । 'गंथे नियदं जहंतेण' ग्रन्थान्नियतं त्यजता ॥। ११६५।।
देह आदरः सर्वस्य हिंसादेरसंयमस्य मूलं परित्यक्तो भवति परिग्रहं त्यजते त्याचष्टे - जम्हा णिग्गंथो सो वादादवसीददंसमसयाणं ।
सहदि य विविधा बाघा तेण सदेहे अणादरदा ॥। ११६६ ||
'जम्हा' यस्मात् । 'णिग्गंथो सो' निष्परिग्रहांऽसौ 'वादादव सोददंसमसयाणं' विविधां बाधां वातातपशीतदंशमशकानां विविधं दुःखं 'सहदि' सहते । 'तेण' सहनेन । 'सदेहे' स्वदेहे 'अणादरदा' आदराभावः । शरीरे अकृतादरश्च जहात्यशेषं हिसादिकं तपसि च स्वशक्त्यनिगूहनंन प्रयतते ॥११५६ ।। संगपरिमग्गणादी णिस्संगे णत्थि सव्वविक्खेवा |
झणझणाणि तओ तस्स अविग्घेण वच्च॑ति ।। ११६७।।
'संगपरिमग्गणादी' परिग्रहान्वेपणादि परिग्रहस्य स्वाभिलषितस्य अस्तित्वगवेषणे क्लेशमस्तीति । तथा तत्स्वामिनां कोsस्य 'स्वामित्वं वा स्वासी अवतिष्ठते इति पुनर्याञ्चा ? लाभे सन्तोषां, अलाभे दीनमनस्कता,
निर्जरा आदिके उपाय नहीं होते । जो आत्माका परिणाम नहीं है वह निर्जराका कारण नहीं है । जैसे पुद्गल द्रव्यके रूपादि । शीत आदि आत्माके परिणाम नहीं हैं । तथा भूख प्यास आदि दुःखके कारण हैं किन्तु स्वयं दुःखरूप नहीं हैं । तब आप कैसे कहते हैं कि भूख प्यास आदि परीषह हैं ? समाधान - उक्त दोष ठीक नहीं है क्योंकि भूख आदि शब्दोंका अर्थं भूख आदिसे होने वाला दुःख है । अत: भूख, प्यास, शीत, उष्ण, डांस-मच्छर, नाग्न्य आदिको परीषह कहने में कोई विरोध नहीं है । अतः जो इन परीषहों को दूर करनेके उपायोंको त्याग देता है वह शीत आदिका कष्ट होने पर भी अपने मनमें कोई संक्लेश नहीं करता ||१९६५ |
समस्त हिंसा आदि असंयमका मूल शरीरमें आदरभाव है । परिग्रहको त्यागने पर वह भी त्याग दिया जाता है, यह कहते हैं
गा०—यतः परिग्रहका त्यागी निर्ग्रन्थ वायु, धूप, शीत, डांसमच्छर आदिके अनेक कष्टोंको सहता है । उस सहनसे उसका शरीरमें अनादरभाव प्रकट होता है । और शरीरका आदर न करने वाला समस्त हिंसा आदिको छोड़ देता है और अपनी शक्तिको न छिपाकर तपका प्रयत्न करता है | ११६६ ॥
गा० - टी० -- अपनेको इष्ट परिग्रहको खोजने में उसके स्वामीको खोजनमें कष्ट होता है कि वह कहाँ
१. स्वामित्व च न क्वा-अ० ।
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कष्ट होता है । तथा वह मिल भी जाये तो रहता है । स्वामी मिल जाये तो उससे
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