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________________ ८५४ . भगवती आराधना तत्समीपेऽन्येन कश्चिद गच्छति, यथासौ मार्गपावस्थः, एवं निरतिचारसंयममार्ग जानन्नपि न तत्र वर्तते, किंतु संयममार्गपार्वे तिष्ठति नैकान्तेनासंयतः, न च निरतिचारसंयमः' सोऽभिधीयते पार्श्वस्थ इति । शय्याधरपिण्डमभिहितं नित्यं च पिण्डं भुङ्क्ते, पूर्वापरकालयोतसंस्तवं करोति, उत्पादनैषणादोषदुष्टं वा भुङ्क्ते, नित्यमेकस्यां वसतौवसति, एकस्मिन्नेव संस्तरे शेते, एकस्मिन्नेव क्षेत्रे वसति । गृहिणां गृहाभ्यन्तरे निषद्यां करोति, गृहस्थोपकरणैर्व्यवहरति, दुःप्रतिलेखमप्रतिलेखं वा गृह्णाति, - सूचीकर्तरिनखच्छेदसंदंशनपट्टिकाक्षरकर्णशोधनाजिनग्राही, सीवनप्रक्षालनावधूननरञ्जनादिबहुपरिकर्मव्यापृतश्च वा पार्श्वस्थः। क्षारचूर्ण सौवीरलवणसपिरित्यादिकं अनागाढकारणेऽपि गृहीत्वा स्थापयन् पार्श्वस्थः । रात्रौ यथेष्टं शेते, संस्तरं च यथाकामं बहुतरं करोति । उपकरणबकुशो देहबकूश:-दिवसे वा शेते च यः पावस्थः । पदप्रक्षालनं म्रक्षणं वा यत्कारणमन्तरेण करोति, यश्च गणोपजीवी तृणपञ्चकसेवापरश्च पावस्थः । अयमत्र संक्षेपः-अयोग्यं सुखशीलतया यो निषेवते कारणमन्तरेण स सर्वथा पावस्थः । कुत्सितशील: कुशीलः । यद्येवं अवसन्नादीनां कुशीलत्वं प्राप्नोति, नैवं लोकप्रकटकुत्सितशील: कुशील इति विवेकोऽत्र ग्राह्यः । स च कुशीलोऽनेकप्रकारः कश्चित्कोतुकशीलः औषधविलेपनविद्याप्रयोगणव, सौभाग्यकरणं राजद्वारिककौतुकमादर्शयति यः स कौतुककुशीलः । जैसे कोई मार्गको देखते हुए भी उस मार्गसे न जाकर अन्य उसके समीपवर्ती मार्गसे जाता है, उसे मार्ग पार्श्वस्थ कहते हैं । इसी प्रकार जो निरतिचार संयमका मार्ग जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करता किन्तु संयमके पार्श्ववर्ती मार्गमें चलता है, वह न तो एकान्तसे असंयमी है और न निरतिचार संयमी है। उसे पार्श्वस्थ कहते हैं। शय्याधरपिण्डका स्वरूप पहले कहा है उस भोजनको नित्य करता है। भोजन करनेसे -पहले और भोजन करनेके पश्चात् दाताकी स्तुति करता है। अथवा उत्पादन और एषणा दोषसे दूषित भोजन करता है। नित्य एक ही वसतिकामें रहता है। एक ही संस्तरपर सोता है। एक ही क्षेत्र में रहता है। गृहस्थोंके घरके भीतर बैठता है। गृहस्थोंके उपकरणोंका उपयोग करता है। बिना प्रतिलेखनाके वस्तुको ग्रहण करता है या दुष्टता पूर्वक प्रतिलेखना करता है। सुई, कैंची, नख काटनेके लिये नहिनी, छुरा, कानका मैल निकालनेको सीक, चर्म आदि पासमें रखता है। और सीना, धोना, रंगना आदि कामोंमें लगा रहता है, वह पार्श्वस्थ है । क्षारचूर्ण, सुर्मा, नमक, घी इत्यादि बिना कारण ग्रहण करके पासमें जो रखता है वह पार्श्वस्थ है। जो रातमें मनमाना सोता है, संस्तरा इच्छानुसार लम्बा चौड़ा बनाता है वह उपकरण बकुश है। जो दिनमें सोता है वह देहवकुश है। ये भी पार्श्वस्थ हैं । जो बिना कारण पैर धोता है और तेल लगाता है तथा जो गणोपजीवि है......वह पार्श्वस्थ है । सारांश यह है कि सुखशील होनेके कारण जो बिना कारण अयोग्य का सेवन करता है वह सर्वथा पार्श्वस्थ है। ... जिसका शील कुत्सित है वह कुशील मुनि है शङ्का-यदि ऐसा है तो अवसन्न आदि भी कुशील कहलायेंगे । समाधान नहीं, क्योंकि लोकमें जिसका कुत्सित शील प्रकट है वह कुशील है, यह में भेद ग्रहण करना चाहिये। वह कुशील अनेक प्रकारका होता है। कोई कौतुक कुशील होता है जो औषध लगानेकी विद्याके प्रयोग द्वारा सौभाग्यके कारण राजद्वारमें कौतुक दिखलाता हैं। १. मः संविधीयते -अ० ।२. प्रतिक्षणं आ० । ३. त्रिण अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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