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________________ विजयोदया टीका ५३७ 'उज्जुगभावम्मि' ऋजुभावे असति कथं भवति तासु विस्रम्भः । असति विस्रम्भे का वनितासु रतिः ॥९६७॥ गच्छिज्ज समुद्दस्स वि पारं पुरिसो तरित्तु ओघबलो। मायाजलमहिलोदधिपारं ण य सक्कदे गंतुं ॥९६८।। 'गच्छिज्ज' गच्छेत् समुद्रस्य अपि परं पारं तीर्खा महाबलः । मायाजलवनितोदधिपारं नैव गन्तुं शक्नोति ॥९६८॥ रदणाउला सवग्धावगुहा गाहाउला च रम्मणदी। मधुरा रमणिज्जावि य सढा य महिला सदोसा य ॥९६९॥ 'रदणाउला' रत्नसंकीर्णा सव्याघ्रा गुहेव रम्या नदी ग्राहाकुलेव मधुरा रम्या शठा सदोषा च वनिता ॥९६९।। दिलृ पि सब्भावं पडिज्जदि णियडिमेव उद्देदि । गोधाणुलुक्कमिच्छी करेदि पुरिसस्स कुलजावि ।।९७०॥ 'विट्ठ पि' दृष्टमपि न प्रतिपद्यते सद्भाव निकृतिमेवोपन्यस्यति ॥९७०॥ पुरिसं वधमुवणेदित्ति होदि बहुगा णिरुत्तिवादम्मि । दोसे 'संघादिदि य होदि य इत्थी मणुस्सस्स ॥९७१।। 'पुरिसं बधमुवणेदित्ति' पुरुषं वधमुपनयतीति वधूरिति निरुच्यते। मनुष्यस्य दोषान्संहतान्करोतीति स्त्रीति निगद्यते ॥९७१।। गा०–महाबलशाली मनुष्य समुद्रको भी पार करके जा सकता है। किन्तु मायारूपी जलसे भरे स्त्रीरूपी समुद्रको पार नहीं कर सकता ॥९६८|| ___गा०–रत्नोंसे भरी किन्तु व्याघ्र के निवाससे युक्त गुफा और मगरमच्छसे भरी सुन्दर नदीकी तरह स्त्री मधुर और रमणीय होते हुए भी कुटिल और सदोष होती है ॥९६९|| गा०-दूसरेने स्त्रीमें दोष देखा हो तो भी स्त्री यह स्वीकार नहीं करती कि मेरेमें यह दोष है । प्रत्युत यही कहती है कि मेरा यह दोष नहीं है या मैंने ऐसा नहीं किया है। इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं-जैसे गोह जिस भूमिको पकड़ लेती है, बलपूर्वक छुड़ाने पर भी उसे नहीं छोड़ती। उसी प्रकार स्त्री भी अपने द्वारा गृहीत पदको नहीं छोड़ती। अन्य भी अर्थ टीकाकारोंने किया है-जैसे गोह पुरुषको देखकर उससे अपनेको छिपाती है उसी प्रकार स्त्री भी पुरुषको देखकर अपनेको छिपाती है कि यह मुझे न देख सकें। अथवा दूसरेने कोई अच्छा कार्य किया और स्त्रीने उसे देखा भी, फिर भी वह उसे स्वीकार नहीं करती, बल्कि व्यंग रूपसे उसको बुरा ही कहती है ।।९७०॥ गा०-स्त्री वाचक शब्दोंकी निरुक्तिके द्वारा भी स्त्रीके दोष प्रकट होते हैं-पुरुषका वध करती है इसलिये उसे वधु कहते हैं। मनुष्यमें दोषोंको एकत्र करती है इसलिये स्त्री कहते हैं ।।९७१।। १. संघाडेत्ति-मूलारा । ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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