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भगवती आराधना
अपराजितसूरिकृता
विजयोदया टीका सहिता दर्शनज्ञानचारित्रतपसामाराधनायाः स्वरूपं, विकल्पं, तदुपायं, साधकान्, सहायान्, फलं च प्रतिपादयितुमुद्यतस्यास्य शास्त्रस्यादौ मङ्गलं स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकृती क्षमं शुभपरिणामं विदधता तदुपायभूतेयमरचि गाथा
सिद्धे जयप्पसिद्धे चउब्विहाराहणाफलं पत्ते ।
वंदित्ता अरहंते वोच्छं आराहणं कमसो ।। १ ।। सिद्धे जयप्पसिद्धे इत्यादिका । अत्रान्ये कथयन्ति-"निवृत्तविषयरागस्य निराकृतसकलपरिग्रहस्य क्षीणायुषस्साधकस्याराधनाविधानावबोधनार्थमिदं शास्त्र" तस्याविघ्नप्रसिद्ध्यर्थमिदं मङ्गलस्य कारिका गाथेति । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतादयोऽप्याराधका एव । तत्किमुच्यते निवृत्तविषयरागस्य निराकृतसकलपरिग्रहस्येति । न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टे: संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता, सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति । क्षीणायुष इति चानुपपन्नं । अक्षीणायुषोऽप्याराधकतां दर्शयिष्यति सूत्रं 'अणुलोमा वा सत्तू चारित्तविणासया हवे जस्स' इति ।
शास्त्रान्तरे पञ्चानां गुरूणां नमस्क्रिया प्रारभ्यते । तत्र चाहतामेवोपादानमादी । इह तु पुनद्वयोरेव
इस शास्त्रमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तपकी आराधनाका स्वरूप, भेद, उसके उपाय, साधक, सहायक और फलका कथन किया जायगा। अतः अपने और उसको सुनने वालोंके प्रारब्ध कार्यमें आने वाले विघ्नोंको दूर करने में समर्थ मङ्गलस्वरूप शुभ परिणामको करते हुए आचार्यने उसके उपायभूत 'सिद्धे जयप्पसिद्धे' इत्यादि गाथा रची है।
इसके सम्बन्धमें अन्य टीकाकार कहते हैं कि विषयोंमें रागसे निवृत्त और समस्त परिग्रहके त्यागी जिस साधककी आयु समाप्त होनेवाली है, उसको आराधना करानेके लिये यह शास्त्र रचा है तथा उसकी निर्विघ्न प्रसिद्धिके लिये यह मंगलकारक गाथा है।
(इसपर हमारा कहना है कि) असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत आदि भी आराधक ही हैं। तब यह क्यों कहते हैं कि विषयोंके रागसे निवृत्त, समस्त परिग्रहके त्यागी साधकके लिये यह ग्रन्थ रचा है। असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत न तो विषयानुरागसे निवृत्त होते हैं और न समस्तपरिग्रहके त्यागी ही होते हैं। तथा 'जिनकी आयु समाप्त होनेवाली है' यह कथन भी यथार्थ नहीं है क्योंकि आगे 'अणुलोमा वा सत्तू' इत्यादि गाथासूत्रके द्वारा ग्रन्थकार, जिनकी आयु समाप्त होनेवाली अभी नहीं है उनकी भी आराधकता दिखलायेंगे ।
शङ्का-अन्य शास्त्रोंके प्रारम्भमें पाँचों गुरुओंको नमस्कार किया गया है और उनमें
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