SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३५ विजयोदया टीका कसिणा परीसहचमू अब्भुट्टइ जइ वि सोवसग्गावि । दुद्धरपहकरवेगा भयजणणी अप्पसत्ताणं ॥२०४।। 'कसिणा' कृत्स्ना । 'परीसहचम्' परीषहसेना क्षुदादिद्वाविंशतिदुःखपृतनेति यावत् । 'अब्भुट्ठई' आभिमुख्येनोत्तिष्ठति । 'जइवि' यद्यपि 'सोवसग्गा वि' चतुर्विधेनोपसर्गेण सह वर्तमानापि । 'दुद्धरपहकरवेगा' दुर्धरसंकटवेगा । 'अप्पसत्ताणं भयजणणी' अल्पसत्वानां भयजननी ।।२०४|| धिदिधणिदवद्धकच्छो जोघेइ अणाइलो तमच्चाई । धिदिभावणाए सूरो संपुण्णमणोरहो होई ।।२०५।। 'तं' तां पृतनां । 'जोधेई' योधयति । कया सह ? 'धिदिभावणाए' धृतिमावनया । कः ? 'धिदिधणिदबद्धकच्छो' धृत्या नितरां बद्धकक्षः। 'सूरो' शूरः । 'अणाइलो' अनाकुलो विक्रमवान् । फलमाचष्टे तस्य 'संपुण्णमणोरहो होइ' संपूर्णमनोरथो भवति ॥२०५॥ एयाए भावणाए चिरकालं हि विहरेज्ज सुद्धाए । काऊण अत्तसुद्धि दंसणणाणे चरित्ते य ॥२०६॥ 'एयाए भावणाए' एतया पञ्चप्रकारया भावनया सह । 'चिरकालं विहरेज्ज' चिरं प्रवर्तेत । 'सुद्धाए' शुद्धया । 'काऊण' कृत्वा । 'अत्तसोधि' आत्मशुद्धि । 'दसणणाणे चरिते य' रत्नत्रये निरतिचारो भूत्वा ॥२०६।। व्यावणितभावनानन्तरा सल्लेखनेत्यधिकारसंबन्धमाचष्टे एवं भावमाणो भिक्खू सल्लेहणं उवक्कमइ । णाणाविहेण तवसा बज्झेणब्भंतरेण तहा ॥२०७॥ एवं भावमाणो 'एवं' उक्तेन प्रकारेण 'भावमाणो भावनापरः । 'भिक्खू सल्लेहणं' सल्लेखनां तनूकरणं । 'उवक्कमइ' प्रारभते । केन ? 'णाणाविहेण' नानाप्रकारेण । 'तवसा' तपसां 'बझेगम्भंतरेण तहा' रता रहित वृत्ति । उस धृति बल भावनासे दुःखदायी परीषहकी सेनासे मुनि युद्ध करता है, यह कहते हैं गा०-दुःखदायी संकटके वेग सहित, अल्प शक्तिवालोंको भय पैदा करनेवाली भूख आदि बाईस परीषहोंकी समस्त सेना जिसके साथमें चार प्रकारके उपसर्ग भी हैं, यदि सन्मुख खड़ी हो ।।२०४॥ गा०-धैर्यके साथ दृढ़तापूर्वक कमरको बाँधनेवाला शूर विना किसी घबराहटके धृति भावनासे उस सेनासे अत्यन्त युद्ध करता है । फलस्वरूप उसका मनोरथ सम्पूर्ण होता है ॥२०५।। गा०—इस शुद्ध पाँच प्रकारकी भावनासे आत्माकी शुद्धि करके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयमें चिरकालतक विहार करना चाहिए ॥२०६|| भावनाओंका वर्णन करनेके अनन्तर सल्लेखना अधिकारके साथ उनका सम्बन्ध कहते हैं गा०--उक्त प्रकारसे भावना भानेवाला भिक्षु नाना प्रकारके बाह्य और अभ्यन्तर तपसे सल्लेखनाको प्रारम्भ करता है ।।२०७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy