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प्रस्तावन
२९
पञ्चाचाराधिकारकी गा० ४०, ४२, ४८, ९८, ९९, ११०, ११७, १२३, १३०, १३१, १३२, १३३, १३५, १३६, १३८, १३९, १४०, १४३, १४५, १४६, १५६, १६२, १७०, १७२, १७४, १७७, १७८, १८२, १८९, १९०, १९४, १२९, २०४, २०५, २१०, २१२, २१३, भ० आ० में क्रमशः १८१९, १८२९, १८४१, ११७९, ११८०, ११८६, ११८८, ८०८, ११९५, ११९६, ११९७, ११९८, ११८१, ११८२, ११८४, ११९९, १२००, १२०४, १२०६, १२०७, २१५, २३८, ११२, ११४, ११९, १२२, १२३, १२७, १३१, १३२, ३०७, १६९८, १७०८, १७०९, १११२, १०६, १०३ है |
दोनों ग्रन्थोंके गाथानुक्रमको देखते हुए यह कहना अति साहस होगा कि किसी एकने दूसरेसे लिया है या नकल की है। प्राचीन माने जानेवाले ग्रन्थों में इस प्रकारका क्वचित् साम्य देखकर यही मानना उचित प्रतीत होता है कि प्राचीन गाथाएँ परम्परासे अनुस्यूत चली आती थीं और उनका संकलन ग्रन्थकारोंने अपने-अपने ढंग से किया है ।
श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में वस्त्र और पात्र के कारण मुनि आचारमें भेद बड़ा है । किन्तु भ० आ० और मूलाचारके आचारमें साम्य देखकर यह कहना पड़ता है कि यदि भगवती आराधना के कर्ता दिगम्बर सम्प्रदाय के न होकर यापनोय थे तो भी यापनीय और दिगम्बर साधुओंके आचार में भेद नहीं था । आगे इसको चर्चा करेंगे ।
७. रचयिताका सम्प्रदाय
स्व० श्री नाथूरामजी प्रेमी ने 'यापनीयोंका साहित्य' शीर्षक लेखमें भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य और टीकाकार अपराजित सूरिको यापनीय सिद्ध किया है
यहाँ प्रथम यापनीयोंके सम्बन्धमें प्रकाश डालना उचित होगा ।
वि० सं० ९९० में रचे गये दर्शनसारमें' देवसेन ने वि० सं० २०५ में कल्याण नगर में श्रीकलश नामके श्वेताम्बर से यापनीय संघकी उत्पत्ति बतलाई है । उसीमें विक्रसं० १३६ में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति बतलाई है । इस तरह दिगभ्वर और श्वेताम्बरकी तरह तीसरा भी जैन संघ था। डा० उपाध्ये ने अपने एक लेखमें' यापनीय संघ पर विस्तारसे प्रकाश
डाला था ।
दिगम्बर साहित्य में वि० की सोलह शताब्दी के ग्रन्थकार श्रुत सागरसूरि ने अपनी षट् प्राभृत टीकामें यापनीयोंका परिचय देते हुए लिखा है
'यापनीयास्तु वेसरा ? इवोभयं मन्यते रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति । स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं केवलिजिनानां कवलाहारं परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति ।'
अर्थात् यापनीय दोनोंको मानते हैं, रत्नत्रयको पूजते और कल्पसूत्र भी वांचते हैं । स्त्रियोंको उसी भवमें मोक्ष, केवली जिनोंके कवलाहार, परशासनमें सग्रंथोंको मोक्ष कहते हैं । यह सभी बातें श्वेताम्बर मानते हैं और इन्हींको लेकर श्वेताम्बर दिगम्बर सम्प्रदाय में मुख्य भेद है ।
१. कल्लाणे वरणयरे दुण्णिसए पंच उतरे जादे । जावणिय संघभावो । सिरिकलसादो दु
सेवडदो ॥ २९ ॥
२. बम्बई यूनिवर्सिटी जर्नल जि० १, भाग २, मई १९३३ में प्रकाशित 'यापनीयसंघ ए जैन सेक्ट' ।
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