________________
भगवती आराधना जैसे भगवतीमें गुरु क्षपकको सम्बोधन करते है। इसमें भी कुछ उसी प्रकार है। कोईकोई गाथा भी समान है।
इस तरह मरणसमाधि, भत्तपइण्णा और संथारगमें तथा भगवती आराधनामें अनेक गाथाएँ समान है। किन्तु इनमें केवल समाधि सम्बन्धी कुछ आवश्यक कथन ही पाया जाता है । मरणोत्तर क्रियाका, ध्यानका, लिंगका तो वर्णन ही नहीं है। इसी प्रकार अपना संघ छोड़कर निर्यापकाचार्यको खोजनेका भी कोई वर्णन नहीं है। भगवती आराधनामें आराधनासे लेकर निर्वाण तकका सब अविकल वर्णन विस्तारसे किया है । गाथाओंमें समानता होनेका प्रमुख कारण तो यह है कि तीनों हो सम्प्रदायोंका मूल तो भगवान् महावीरकी वाणी और गौतम गणधरके द्वारा रचित द्वादशांग ही रहे हैं । भेदका मूलकारण वस्त्रपात्रवाद रहा है। विधि तो पृथक्-पृथक् नहीं रही। अतः प्राचीन गाथाएँ उत्तराधिकारमें दोनोंको मिली हैं। वही सर्वत्र मेल खाती हैं उनमें सिद्धान्त भेदकी बात नहीं है।
अतः अपनी रचनाके अन्त में शिवार्यने जो कहा है कि मैंने अपनी शक्तिसे इसे उपजीवित करके पूर्वाचार्यकृतके समान रचा है वही इसपर पूर्ण प्रकाश डालता है। मरण समाधि भी इसी प्रकार रची गई है। ६. भ० आ० तथा मूलाचार
दिगम्बर परम्परामें मूलाचार मुनि आचार विषयक प्राचीन मान्य ग्रन्थ है। टीकाकार अपराजित सूरिकी टीकामें उद्धृत कुछ गाथाएँ मूलाचारमें मिलती है। भगवती आराधनाके हाथ मिलान करनेसे भी दोनोंकी कुछ गाथाएँ परस्परमें मेल खाती हैं। किन्तु ये गाथाएँ अधिकतर मूलाचारके पञ्चाचार प्रकरणसे सम्बद्ध हैं। मूलाचारमें समाधिमरणका कथन नहीं है केवल दुनिआचारका ही कथन है। श्वेताम्बरीय मरणसमाधि आदि प्रकरणोंमें केवल मरणसमाधिका ही कथन है। किन्तु भगवती आराधनामें मुनि आचार और मरणसमाधि दोनोंका ही कथन है योंकि पण्डितमरणमें ही भक्त प्रतिज्ञा आदि होती है और वह मुनिके ही होता है । इसलिये भ० मा० में मुनि आचारका भी कथन है। तथा भ० आ० में जो मुनिका आचार कहा है वह मूलाचारमें भी कहा है।
जिस 'आयार जीद कप्प' आदि गाथाके सम्बन्धमें कहा जाता है कि श्वेताम्बरीय होना नाहिये, वह भी मूलाचारके पञ्चाचारमें है। इस प्रकरणकी लगभग सैंतीस गाथाएँ भगवतीसे नल खाती हैं। भ० आ० में जो लिंग प्रतिपादक गाथा है वह भी मूलाचारमें है। अच्चेलकं जोचो आदि समयसाराधिकारकी १७ वी गाथा है। इसी अधिकारमें दस कल्पवाली गाथा भी
। पीछीके गुण बतलानेवाली गाथा भी इसी अधिकारमें है उसका नम्बर १९ है। भ० आ० में इनका क्रमांक ७९, ४२३, ९७ है।
इसके समयसाराधिकार की ८, ९, १६, १९, ४९, ६० और ८१ नम्बर की गाथाएँ भ० आ० में ७६८, ७६९, २९०, ९७, ७. २९७ और १४३४ नम्बरमें पाई जाती हैं। इनमें साधुके लिये उपयोगी कथन है-यथा आचरणहीन ज्ञान निरर्थक है। ज्ञान प्रकाशक है और तप शोधक है। निद्राको जीतना चाहिये। जिस क्षेत्रमें राजा न हो या दुष्ट राजा हो, वहाँ समाधि या “व्रज्या नहीं लेना चाहिये । आदि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org