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________________ ७३२ . भगवती आराधना ___ संक्लेशस्य नरर्थक्यप्रकटनार्थोत्तरगाथा हदमाकासं मुट्ठीहिं होइ तह कंडिया तुसा होति । सिगदाओ पीलिदाओ धुसिलिदमुदयं च होइ जहा ॥१६२०॥ 'हदमागासं' हतं मुष्टिभिराकाशं ताडितु। तुषकंडनं तंडुलायं । सिकतापीडनं तिलयंत्रे तैलार्थ । जलमंथनं च घृतार्थ यथापार्थकं तथानर्थकः संक्लेशो वेदनाकुलस्य । वेदनायाः अनिराकरणत्वान्नरर्थक्यसाम्यादभेदोपन्यासो दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकयोः ॥१६२०॥ पुव्वं सयमुवभुत्तं काले णाएण तेत्तियं दव्वं । को धारणिओ धणिदस्स देतओ दुक्खिओ होज्ज ।।१६२१॥ 'पुष्वं सयमुवभुत्त' पूर्व स्वयमुपभुक्तं । काले ‘णायेण' न्यायेन । तेत्तिगं ढव्वं' तावद्रव्यं । 'को दुक्खिओ होज्ज धारणिगो' को दुःखितो भवेदधमणः । 'पण्णिदम्मि' उत्तमणे । 'हरते' स्वं द्रव्यं हरति ।।१६२१।। तह चेव सयं पुव्वं कदस्स कम्मस्स पाककालम्मि । णायागयम्मि को णाम दुक्खिओ होज्ज जाणंतो ॥१६२२।। 'तह चेव' तथा चैव । 'सयं पुव्वं कदस्स कम्मस्स' आत्मना पूर्व कृतस्य कर्मणः । 'पाककालम्मि' फलदानकाले न्यायेनागते । 'को गाम दुक्खिदो होज्ज जाणंतो' को नाम दुःखितो भवेज्ज्ञानी ॥१६२२॥ __ इय पुवकदं इणमज्ज महं कम्माणुगत्ति णाऊण । रिणमुक्खणं च दुक्खं पेच्छसु मा दुक्खिओ होहि ॥१६२३।। ‘इय पुव्वकदं' 'इय' एवंभूतं । 'दुक्खं पुव्वकदं पूर्वकर्मणा कृतं । 'इणं' इदं दुःखं । 'अज्ज' अद्य । 'महं कम्माणुगत्ति' मम कर्मणामिति । 'णादण' ज्ञात्वा । 'रिणमुक्खणं वा' ऋणमोक्षण इव । 'दुवखं पिच्छसु' दुःखं प्रेक्षस्व । ‘मा दुक्खिदो होहि' दुःखितो मा भूः ॥१६२३।। आगे संक्लेशकी निरर्थकता बतलाते हैं गा०-जैसे मट्टियोंसे आकाशको मारना, चावलके लिये उसके छिलकोंको कूटना, तेलके लिये कोल्हूमें रेत पेलना, और घीके लिये जलको मथना निरर्थक है उसी प्रकार वेदनासे पीड़ित व्यक्तिका संक्लेश करना निरर्थक है। संक्लेश करनेसे वेदना दूर नहीं होती. है अतः निरर्थक होनेसे दृष्टान्त और दार्टान्तमें समानता है ।।१६२०।। गा०-जैसे कोई कर्जदार साहूकारसे ऋण लेकर स्वयं उसका उपभोग करता है। और ऋण चुकानेका समय आनेपर उतना ही द्रव्य देते हुए उसे दुःख नहीं होता। उसी प्रकार पूर्वमें स्वयं बांधे हुए पापकर्मका फल भोगनेवाले ज्ञानीको दुःख कैसा ? अतः पूर्वमें बांधे गये कर्मका उदयकाल आनेपर कौन ज्ञानी दुःखी होता है ।।१६२१-२२।। गा. यह दुःख मेरे पूर्व में किये गये कर्मोका ही फल है ऐसा जानकर दुःखको ऋण मुक्तिके समान देखो । दुःखी मत होओ ।।१६२३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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