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________________ ७२४ भगवती आराधना 'दोणत्तरोसचितासोगामरिसग्गिपगुलिदमणो जं' दीनत्वरोचिंताशोकामर्षाग्निभिः संतप्तमना यत् । 'पत्तो घोरं दुक्ख' प्राप्तं घोरं दुःखं । 'माणुसजोणीए संतेण' ' मनुष्ययोनी सत्यां भवता ॥१५८६।। दंडणमुंडणताडणघरिसणपरिमोससंकिलेसा य । घणहरणदारधरिसणघरदाहजलादिधणणासं ॥१५८७।। दंडणमुडण-दण्डनमुण्डनताडणदूषणपरिमोषणसंक्लेशाः धनापहरणदारदूषणानि गृहदाहजलादिभिर्द्रविणनाशात् ॥१५८७॥ दंडकसालट्ठिसदाणि डंगुराकंटमद्दणं घोरं । कुंभीपाको मच्छयपलीवणं भत्तवुच्छेदो ॥१५८८।। 'दण्डकसालठ्ठिसदाणि' दण्डकशायष्टिशतैस्ताडनानि दण्डादिकार्यत्वाद्दण्डादिशब्देनोच्यन्ते । डंगुरा मुष्टिप्रहाराः । 'कंटमद्दणं' कण्टकानामुपरि प्रक्षिप्य मईनं घोरं । कुम्भीपाकः । 'मच्छगपलीवणं' मस्तके अग्निपज्वलनं । 'भत्तवुच्छेदो' आहारनिरोधः ।।१५८८॥ दमणं च हत्थिपादस्स णिगलअंदवरत्तरज्जहिं । बंधणमाकोडणयं ओलंवणणिहणणं चेव ॥१५८९।। 'दमणं च हस्थिपावस्स' हस्तिपादेनोन्मईनं । 'णिगलबंदूवरत्तरज्जूहि' निगलेन, अन्दुकाभिः, वरत्राभिः, ज्जूभिश्च बन्धनं । 'आकोडणयं' हस्ती पृष्ठतो नीत्वा बन्धनं । 'ओलंवणं' ग्रीवाबद्धपाशस्य तरुशाखासु लम्बनं । णिहणण' चेव गते निक्षिप्य पूरणं ॥१५८९॥ कण्णोहसीसणासाछेदणदंताण भंजणं चेव । उप्पाडणं च अच्छीणं तहा जिब्भायणीहरणं ॥१५९०।। 'कण्णोठ्ठसीसणासाछेदण' कर्णयोरोष्ठयोः, शिरसो, नासिकायाश्च छेदः । 'दंताण भंजणं चेव' दंतानां भञ्जनं । 'उप्पाडणं च अच्छीणं' अक्ष्णोरुत्पाटनं, तथा "जिम्माए णीहरणं' जिह्वानिहरणं ॥१५९०।। गा०-दीनता, रोष, चिन्ता, शोक और क्रोधरूप आगसे मनके संतप्त होनेपर तुमने मनुष्ययोनिमें रहते हुए घोर दुःख पाया है ॥१५८६॥ गा०–राजा आदिसे दण्डित होना, सिर मुण्डा करा देना, पीटा जाना, तिरस्कारपूर्वक दोष लगाया जाना, चोरी होना, राजा आदिके द्वारा धनका हरण, स्त्रियोंको दोष लगाना, घरमें आग लगाना, बाढ़ वगैरहसे संपत्तिका नष्ट होना, डण्डे कोड़े लाठी आदिसे पीटा जाना, मुट्ठीका प्रहार होना, कांटोंके ऊपर लिटाकर घोर मईन करना, कड़ाहीमें डालकर पकाना, मस्तकपर आग जलाना, आहारका रोक देना इत्यादि दुःख तुमने मनुष्यगतिमें सहे हैं ।।१५८७-८८।। गा-हाथीके पैरसे दबाया जाना, सांकल, चमड़ेकी रस्सी या साधारण रस्सीसे बांधा जाना, दोनों हाथ पीछे करके बांधना, गर्दनमें रस्सी डालकर वृक्षसे लटकाना, गड्ढे में डालकर उसे पर देना। कान, ओष्ठ और नाक काटना, दांत तोड़ना, आंखें निकाल लेना, जीभ उखाड़ लेना, इत्यादि दुःख तुमने भोगे हैं ॥१५८९-९०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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