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________________ ४७४ भगवती आराधना नान्यथेति प्रवर्तकता भावनमस्कारस्य ततः 'प्रधानत्वाद्भाव नमस्कारः संसारोच्छेदकारीति व्यपदिश्यते ।।७५६।। आराधणापडायं गेहतरस हु करो णमोक्कारो। मल्लस्स जयपडायं जह हत्थो घेत्तुकामस्स ।।७५७।। आराधनापताकां ग्रहीतुकामस्य भावनमस्कार एव करो जयपताकां ग्रहीतुकामस्य मल्लस्य हस्त इवेत्युत्तरगाथार्थः ।।७५७॥ अण्णाणी वि य गोवो आराधित्ता मदो णमोक्कारं । चंपाए सेडिकुले जादो पत्तो य सामण्णं ॥७५८|| अर्हद्गुणज्ञानरहितोऽपि गोपी द्रव्यनमस्कारमाराध्य मृतश्चम्पापुरे श्रेष्ठिकुले जातः श्रामण्यं च प्राप्तवान् इति च द्रव्यनमस्कारोऽप्येवं विपुलं प्रयच्छति फलं किं न कुर्याद् भावनमस्कार इति भावः। भावनमस्कारो व्याख्यातः । णमोक्कारं ॥७५८।। णाणोवओगरहिदेण ण सक्को चित्तणिग्गहो काउं। णाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चित्तहत्थिस्स ॥७५९॥ णाणुवओगं इत्येतद्वयाख्यानायोत्तरः प्रबन्धः-'गाणोवोगरहिदेण' ज्ञानपरिणामरहितेन पुंसा। 'ण सक्को चित्तणिग्गहो काउ' चित्तनिग्रहः कर्तुमशक्यः । कस्मात् ज्ञानमन्तरेण न शक्यश्चित्तनिग्रहः कर्तुमित्यारेकायां-ज्ञानं निग्रहकरणे साधकतमं ततस्तदन्तरेण न भवति चित्तनिग्रह इत्याचष्टे । 'णाणं अंकुसभूदं चारित्र और सम्यक् तप विद्यमान कर्मों को दूर करने में निमित्त होता है, अन्यथा नहीं होता। इसलिए भाव नमस्कार ज्ञान चारित्र और तपका प्रवर्तक होनेसे प्रधान है और संसारका उच्छेद करने वाला कहाता है ॥७५६|| गा०-जैसे विजय पताकाको ग्रहण करनेके अभिलाषी मल्लके लिए हाथ है। हाथसे ही वह जय पताका ग्रहण करता है। वैसे ही आराधना पताका (ध्वजा) को ग्रहण करनेके इच्छुक आराधकका हाथ भाव नमस्कार है। भाव नमस्कार पूर्वक ही वह आराधनामें सफलता पाता है ॥७५७|| गा०-सुभग नामका ग्वाला अज्ञानी था, उसे अर्हन्तके गुणोंका ज्ञान नहीं था। वह द्रव्यनमस्कारकी आराधना करके अर्थात् मुखसे णमोकर मन्त्रका जप करते हुए मरा और चम्पा नगरीमें एक श्रेष्ठीके वंशमें उत्पन्न हुआ। तथा मुनि पदको धारण कर मुक्त हुआ। इस प्रकार द्रव्यनमस्कारसे भी विपुल फलकी प्राप्ति होती है। तब भावनमस्कारका तो कहना ही क्या है। इस प्रकार भावनमस्कारका कथन समाप्त हुआ ||७५८|| अब ज्ञानोपयोगका कथन करते हैंगा०-टी०-ज्ञानोपयोगसे रहित मनुष्य अपने चित्तका निग्रह नहीं कर सकता। शङ्का-ज्ञानके बिना चित्तका निग्रह क्यों नहीं कर सकता? समाधान-ज्ञान चित्तका निग्रह करनेमें साधकतम है अतः उसके विना चित्तका निग्रह १. प्रभावत्वा-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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