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________________ विजयोदया टीका ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिन्दन्ति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्याशंकायामाह - जो भावनमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा । ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादु ॥७५५ || 'जो भावण मोक्कारेण विणा' यो भावनमस्कारेण विना सम्यक्त्वं ज्ञानं, चारित्रं, तपश्च । 'खु' शब्द एवकारार्थः । 'ण हु ते संसारुच्छेदणं काडु समस्या होंति' न ते संसारोच्छेदनं कर्तुं समर्था भवन्ति ।।७५५ ।। यद्येवं 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति सूत्रेण विरुध्यते । नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाशने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशङ्कायामाह - चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तओ होदि । तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं ॥ ७५६ ॥ 'चतुरंगाए सेणाए णायगो' चतुरङ्गायाः सेनाया नायको । 'जह पवत्तगो होज्ज' यथा प्रवर्तको भवति । 'तह भावणमोक्कारों' तथा भावनमस्कारः । ' मरणे' मरणगोचरः । 'तवणाणचरणाणं' तपोज्ञानचरणानां । क्षायिकसम्यवत्वज्ञानदर्शनवीर्यगुणात्मका अर्हन्त इत्येवं श्रद्धानात्मको भावनमस्कारः सम्यग्दर्शनत्वात् समीचीनं तपो, ज्ञानं, चारित्र च प्रवर्तयति । न ह्याप्तगुणश्रद्धानं विना शब्दश्रुतस्य प्रामाण्यमयं व्यवस्थापयितुमीशः । वक्तृप्रामाण्याद्विना वचनप्रामाण्यासिद्धेः । न 'ह्यतीन्द्रियविषयज्ञानमयथार्थमिदमेतद्यथार्थमिति वा विवेक्तु ं शक्यते अस्मदादिना । अर्थयाथात्म्यवेदिनो वीतरागद्वेषस्य च यतो वचस्ततो यथार्थमेव विज्ञानं जनयति, नायथार्थमिति समीचीनज्ञानस्य सम्यग्ज्ञानपुरस्सरतया चरणं तपश्च समीचीनं सत्कर्मापनोदे निमित्तं संसारका उच्छेद करनेमें समर्थ कहा है ||७५४ ॥ नमस्कार के विना भी सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र संसारका उच्छेद करते हैं ? ऐसी आशंका में उत्तर देते हैं ४७३ गा० - भाव नमस्कार के विना जो सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र होते हैं वे संसारका उच्छेद करने में समर्थ नहीं हैं ।। ७५५ ।। यदि ऐसा है तो 'सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र मोक्षका मार्ग है' इस सूत्र के साथ विरोध आता है क्योंकि आप नमस्कार मात्रको ही कर्मोंके विनाशका उपाय मानकर मुक्तिका एक ही मार्ग कहते हैं ? इसका उत्तर देते हैं गा० - टी० - जैसे चतुरंग सेनाका नायक प्रवर्तक होता है वैसे ही मरते समय भाव नमस्कार - क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक वीर्य गुण वाले अर्हन्त हैं' इस प्रकार श्रद्धान रूप भाव नमस्कार सम्यग्दर्शन रूप होनेसे समीचीन ज्ञान तप और चारित्रका प्रवर्तक होता है । आप्तके गुणोंके श्रद्धानके विना शब्दरूप श्रुतके प्रामाण्यकी व्यवस्था नहीं की जा सकती, क्योंकि वक्त के प्रामाण्यके विना वचनोंका प्रामाण्य सिद्ध नहीं होता । अतीन्द्रिय विषयोंका ज्ञान अयथार्थ है और 'यह' आदि ज्ञान यथार्थ है, ऐसा विवेक हम लोग नहीं कर सकते । यतः अर्थक्रे यथार्थ स्वरूपको जानने वाले और राग द्वेषसे रहित आप्तका वचन यथार्थ ज्ञानको ही उत्पन्न करता है, अयथार्थ ज्ञानको नहीं, इस प्रकारके सच्चे ज्ञानीका सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक् १. हीन्द्रिय-आ० मु० । ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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