SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७२ भगवती आराधना ज्ञानावरणक्षयोपशमः, दर्शनमोहोपशमः, क्षयः, क्षयोपशमश्च बाह्यं साधनं, अभ्यन्तर आत्मा प्रत्यासन्नभव्यः । आत्मनि वर्तते नमस्कारः । अन्तमुहूर्तस्थितिकः । अहंदादिनमस्कार्यभेदेन पञ्चविधः । अहंदादीनां प्रत्येकमनेक विकल्पत्वात् नमस्कारोऽपि तावद्धा भिद्यते ।।७५२।। मणसा गुणपरिणामो वाचा गुणमासणं च पंचण्हं । काएण संपणामो एस पयत्थो णमोक्कारो ॥७५३॥ अत्र नमस्कारसूत्रेण 'ण मो लोए सव्वसाधूणं' इत्यत्र लोकग्रहणं च सर्वग्रहणं प्रत्येकमभिसम्बध्यते । णमो लोए सव्वेसि अरहताणं, णमो लोए सव्वेसि सिद्धाणं, णमो लोए सव्वेसि आइरियाणं, णमो लोए सव्वेसि उवज्झायाणं' इति । अरहंताणमित्यादि बहुवचननिर्देशादेव सर्वेषामहदादीनां ग्रहणं सिद्धमतो न कर्तव्यं सर्वशब्दोपादानं इति चेत् । अर्द्धतृतीयद्वीपगतभरतेषु, ऐरावतेषु विदेहेषु च ये अर्हन्तः, सिद्धा, आचार्या, उपाध्यायाः, साधवश्वातीता, वर्तमाना, भविष्यन्तश्च तेषां ग्रहणार्थ सर्वशब्द उपात्तः । सादरविशेषख्यापनार्थ प्रत्येकं नमःशब्दोपादानं ।।७५३।। अरहंतणमोक्कारो एक्को वि हविज्ज जो मरणकाले । सो जिणवयणे दिट्ठो संसारुच्छेदणसमत्थो ॥७५४॥ 'अरहंतणमोक्कारों' अर्हतां नमस्कारः । 'जो मरणकाले भवेज्ज एक्को वि' यो मरणकाले भवेदेकोऽपि । 'सो' सः । जिणवयणे दिट्ठो' जिनवचने दृष्टः । 'संसारोच्छेदणसमत्यो' संसारोच्छेदनसमर्थः ॥७५४॥ झुकाना नमस्कार है। नोआगमभाव-नमस्कारका स्वामी सम्यग्दृष्टी होता है। मतिज्ञानावरण और श्रु तज्ञानावरणका क्षयोपशम तथा दर्शनमोहका उपशम, क्षय और क्षयोपशम उसका बाह्य साधन है और निकट भव्य आत्मा अभ्यन्तर साधन है। नमस्कार आत्मामें रहता है। उशकी स्थिति अन्तमुहूर्त है। नमस्कार करनेयोग्य अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधुके भेदसे नमस्कारके पाँच भेद हैं। अर्हन्त आदिमेसे प्रत्येकके अनेक भेद होनेसे नमस्कारके भी उतने ही भेद होते हैं ।।७५२॥ गा०–अरहन्त आदि पाँचोंका मनसे गुणानुस्मरण, वचनसे गुणानुवाद और कायसे नमस्कार यह नमस्कार पदका अर्थ है ॥७५३ टो०- नमस्कार मन्त्रमें आये 'णमो लोए सव्वसाहणं' में जो लोक और सर्वशब्दका ग्रहण किया है उन्हें प्रत्येकके साथ लगाना चाहिए। लोकके सब अर्हन्तोंको नमस्कार हो । लोकमें सब सिद्धोंको नमस्कार हो । लोकके आचार्योंको नमस्कार हो । लोकके सब उपाध्यायोंको नमस्कार हो । शङ्का-'अरहताणं' इत्यादि में बहुवचनके निर्देशसे ही सब अर्हन्तोंका ग्रहण सिद्ध है अतः सर्वशब्दका ग्रहण उचित नहीं है ? समाधान-अढ़ाईद्वीपके भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रोंमें जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु अतीतकालमें हुए, वर्तमानमें है और भविष्य में होंगे उनके ग्रहणके लिए सर्व शब्द ग्रहण किया है। और विशेष आदर बतलानेके लिए प्रत्येकके साथ 'णमो' शब्द लगाया है ।।७५३।। गा०-मरते समय यदि एक वार भी अर्हन्तोंको नमस्कार किया तो उसे जिनागममें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy