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________________ ८९८ भगवती आराधना __'सो तेण' स तेन पञ्चमात्राकालेनानेन ध्यानेन क्षपयति द्विचरमसमये अनुदीर्णाः सर्वाः प्रकृतीः ॥२११८॥ चरिमसमयम्मि तो सो खवेदि वेदिज्जमाणपयडीओ। बारस तित्थयरजिणो एक्कारस सेस सव्वण्हू ।।२११९॥ 'चरिमसमयम्मि' अंत्ये समये क्षपयति वेद्यमानाः प्रकृतीदिश तीर्थङ्करजिनः । शेषसर्वज्ञः एकादश । 'नामक्खएण' नाम्नो विनाशेन तेजसशरीरबन्धो नश्यति । आयुषः क्षयेण औदारिकबन्धनाशः ॥२११९।। णामक्खएण तेजोसरीरबंधो वि 'हीयदे तस्स । .. आउक्खएण ओरालियस्स बंधो वि हीयदि से ।।२१२०॥ तं सो बंधणमुक्को उड्ढं जीवो पओगदो जादि । जह एरण्डयबीयं बंधणमुक्कं समुप्पददि ।।२१२१॥ स्पष्टोतरगाथाद्वयं ॥२१२०-२१२१।। संग विजहणेण य लहुदयाए उड्ढं पयादि सो जीवो । जध आलाउ अलेओ उप्पददि जले णिबुड्डो वि ॥२१२२॥ 'संगजहणेण' संगत्यागाल्लघुतयोर्द्ध प्रयाति जलनिमग्ननिर्लेपालाबुवत् ॥२१२२॥ झाणेण य तह अप्पा पओगदो जेण जादि सो उड्ढं । वेगेण पूरिदो जह ठाइदुकामो वि य ण ठादि ॥२१२३॥ 'झाणेण य' ध्यानेनात्मा प्रयुक्तो यात्यूध्वं वेगेन पूरितो यथा न तिष्ठति स्थातुकामोपि ।।२१२३॥ गा०-टी०-इस ध्यानका काल 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच मात्राओंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतना है। इतने कालवाले उस अन्तिम ध्यानके द्वारा अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें बिना उदीरणाके सब ७२ कर्म प्रकृतियोंको खपाते हैं, उनका क्षयकर देते हैं, और अन्तिम समयमें तीर्थंकर केवली बारह प्रकृतियोंका क्षय करते हैं तथा सामान्य केवली ग्यारह प्रकृतियोंका क्षय करते हैं ॥२११८-१९।। गा०-उनके नामकर्मका क्षय होनेसे तैजस शरीर बन्धका भी क्षय हो जाता है। और आयुकर्मका क्षय होनेसे औदारिक शरीर बन्धका क्षय हो जाता है ॥२१२०॥ गा०-इस प्रकार बन्धनसे मुक्त हुआ वह जीव वेगसे ऊपरको जाता है जैसे बन्धनसे मुक्त हुआ एरण्डका बीज ऊपरको जाता है ॥२१२१॥ गा०-समस्त कर्म नोकर्मरूप भारसे मुक्त होनेके कारण हल्का हो जानेसे वह जीव ऊपर को जाता है। जैसे मिट्टीके लेपसे रहित तूम्बी जलमें डूबनेपर भी ऊपर ही आती है ॥२१२२।। गा०-जैसे वेगसे पूर्ण व्यक्ति ठहरना चाहते हुए भी नहीं ठहर पाता है वैसे ही ध्यानके १, खीयदे मु० । २. खीयदि -मु० । ३. संगस्स विजणेण -आ० । Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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