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________________ भगवती आराधना 'णासदि मदी' नश्यति मतिः । 'उदिष्णे कम्मे उदीर्णे कर्मणि । बुद्धिद्विधा स्वाभाविकी आगमभवा च । सा द्वयी यस्यासौ हितमर्वति नेतरः । उक्तं च ७६८ द्विधेह बुद्धि प्रवदन्ति सन्तः स्वाभाविकीमागमसंभवाञ्च । बुद्धिद्वयी यस्य शरीरिणः स्याविष्टं हितं सो लभते न चान्यः ॥ १॥ स्वाभाविकी यस्य मतिविशुद्धा, तीर्थादवाप्तं न तु शास्त्रमस्ति । द्रष्टुं हितं धर्ममसौ न शक्तो भाषां विना रूपमिवाप्यनन्धः ॥ २॥ तीर्थादवाप्तं श्रुतमस्ति यस्य स्वाभाविकी नास्ति मतिविशुद्धा । श्रुतस्य नाप्नोति फलं स तस्य दीपस्य हस्तेऽपि सतो यथान्धः ॥ ३॥ कि दर्पणेनावृतलोचनस्य विवान भोगस्य धनेन वा किम् । शस्त्र ेण किं वा युषि भोरकस्य तथैव किं मन्दमतेः श्रुतेन ||४|| ईदृशी बुद्धिर्नश्यति ज्ञानावरणाख्ये कर्मण्युदयमुपागते । तच्च ज्ञानावरणं बध्नाति जन्तुर्ज्ञानिनां ज्ञानस्य ज्ञानोपकरणानां च द्वेषान्निह्नवादुपघातात् मात्सर्याद् विघ्नकरणादासादनाद् दूषणात् । ज्ञानादेनिग्रहकरणाद इस प्रकार अध्र वभावनाका कथन समाप्त हुआ । आगे अशरणभावनाका कथन करते हैंकर्मबन्ध आत्माके परिणामोंसे होता है । जीवके ही कषायरूप परिणामोंका निमित्त पाकर उन कर्मोंको दीर्घं स्थिति होती है । प्राप्त द्रव्य क्षेत्र काल और भाव उनके सहकारी कारण होते हैं। जब वे कर्म अशुभ फल देते हैं तो उनको कोई रोक नहीं सकता । अतः में अशरण हूँ ऐसा विचारना चाहिये, यह कहते हैं गा० - टी० - कर्मका उदय होनेपर बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि दो प्रकारकी होती है एक स्वाभाविक और दूसरी आगमिक । जिसके दोनों प्रकारकी बुद्धि होती है वह अपने हितको जानता है । जिसके वह बुद्धि नहीं होती वह नहीं जानता । कहा भी है सन्त पुरुष दो प्रकारकी बुद्धि कहते हैं - एक स्वाभाविक, दूसरी आगमसे उत्पन्न हुई | जिस शरीरधारीके ये दोनों बुद्धियाँ होती हैं वह अपने इष्ट हितको प्राप्त करता है। जिसके दोनों बुद्धिहीं हैं वह हितको प्राप्त नहीं कर सकता । जिसके पास स्वाभाविक विशुद्ध बुद्धि तो है किन्तु जिसने शास्त्राभ्यास करके आगमिक बुद्धि प्राप्त नहीं की है वह हितकारी धर्मको उसी प्रकार नहीं देख सकता, जैसे दृष्टिसम्पन्न पुरुष रूपको देखते हुए भी भाषाके बिना उसको कह नहीं सकता । जिसके पास गुरुसे प्राप्त शास्त्र तो है किन्तु उसे समझनेकी स्वाभाविक विशुद्ध बुद्धि नहीं है वह भी श्रुतका फल नहीं प्राप्त कर सकता । जैसे अन्धा पुरुष हाथमें दीपक होते हुए भी उसका फल नहीं पाता । जिसके लोचन मुंदे हैं उसे दर्पणसे क्या लाभ ? जो न दान देता है न भोगता है उसे धनसे क्या लाभ ? जो डरपोक है उसे युद्धमें शस्त्रसे क्या लाभ ? इसी तरह मन्दबुद्धि पुरुषको शास्त्रसे क्या लाभ ? ॥ 64 ज्ञानावरण नामक कर्मका उदय आनेपर इस प्रकारकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । ज्ञानियोंसे, ज्ञानसे और ज्ञानके उपकरणोंसे द्वेष करनेसे, ज्ञानको और ज्ञानके साधनोंको छिपानेसे, प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगानेसे, ईर्षावश किसीको ज्ञानदान न करनेसे, किसीके ज्ञानाराधनमें बाधा डालनेसे, १. ना वाचमिवा -आ० । २. स्यावि अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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