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________________ विजयोदया टीका ७६७ 'वीचीव' चण्डप्रभंजनाभिघातोत्थापिततरलतरंगमालेव, 'अवृधुवं' अध्रुवं । 'बीरियं' वीर्यमपि । जीवानां शरीरस्य दृढता बलं वीर्यमात्मपरिणामः ॥१७२१॥ हिमणिचओ वि व गिहसयणासणभंडाणि होति अधुवाणि । जसकित्ती वि अणिच्चा लोए संज्झन्मरागोन्व ॥१७२२॥ स्पष्टोत्तरगाथा किह दा सत्ता कम्मवसत्ता सारदियमेहसरिसमिणं । ण मुणंति जगमणिच्चं मरणभयसमुत्थिया संता ॥१७२३।। 'किह' कथं तावत् । 'अणिच्चं जगं मुणंत्ति' जगदनित्यं न जानन्ति । के ? "सत्तादो' सीदन्ति स्वकृतपापवशात्तासु तासु योनिष्विति सत्त्वाः। 'सारविगमेधसरिसमिणं' शरदृतुसमुद्गतनैकवर्णविचित्रसंस्थानजीमूतमालासदृशं । 'मरणभयसमुच्छिदा संता' मरणं विषं 'वृषतमजीवितस्य सरित्कूलं प्रियवियोगदार जलटपटलं. अयस्कान्तोपल: दःखलोहाकर्षणे. बन्धहदयोपलानां द्रावकमौषधमायतापदामायतनं एवंभूतमरणभयसमुत्थिताः सन्तः । एवमनित्यतामशेषवस्तुविषयां ध्येयीकृत्य प्रवर्तते धयं ध्यानं । अर्धव ॥१७२३॥ अशरणताकथनायोत्तरप्रबन्धः । कर्माण्यात्मपरिणामोपाजितानि कषायपरिणामोपनीतचिरकालस्थितीनि सन्निहितक्षेत्रकालभावाख्यसहकारिकारणानि यदा फलमशभं प्रयच्छति तदा तानि न निवारयितुं कश्चित्समर्थोऽस्ति तेनाशरणोऽस्म्यहमिति चिन्ताप्रबन्धः कार्य इत्याचष्टे णासदि मदी उदिण्णे कम्मे ण य तस्स दीसदि उवाओ। अमदंपि विसं सत्थं तणं पि णीया वि डंति अरी ॥१७२४॥ बल शीघ्र नष्ट हो जाता है। तथा जीवोंका वीर्य भी प्रचण्ड वायुके अभिघातसे उठी हुई चंचल तरंगमालाके समान अध्रुव है। जीवोंके शरीरकी दृढ़ताको बल और जीवोंके आत्मपरिणामको वीर्य कहते हैं । ये दोनों ही शीघ्र नष्ट होनेवाले हैं ॥१७२१॥ गा०-घर, शय्या, आसन, भाण्ड ये सब भी बर्फके समूहको तरह अब्रुव हैं। तथा लोकमें यशकी कीर्ति भी सन्ध्याके समय आकाशकी लालिमाकी तरह अनित्य है ।।१७२२॥ गा०-मरणके भयसे युक्त होनेपर भी अपने-अपने कामोंमें लीन प्राणी शरत् कालके मेघके समान इस जगतको अनित्य क्यों नहीं जानते ॥१७२३॥ टी०-अपने किये हुए पापके वशसे उन-उन योनियों में जो कष्ट उठाते हैं उन्हें सत्त्व कहते है। यह जगत् शरद् ऋतुमें उठे हुए अनेक रंग और अनेक आकार वाले मेघमालाके समान अनित्य है। तथा जिन्हें अपना जीवन प्रिय है उनके लिये मरण विषके समान है। प्रियजनके वियोगरूपी पुत्रके लिये नदीका तट है । शोकरूपी वज्रपातके लिये मेधपटल है । दुःखरूपी लोहको लानेके लिये चुम्बक पत्थर है। बन्धुओंके हृदयरूपी पत्थरको पिघलानेके लिये औषध है। मरने पर कठोर हृदय कुटुम्बियोंका भी मन पिघल जाता है। लम्बी विपत्तियोंका घर है । ऐसा मरणके भयको जानते हुए भी लोग जगत्की अनित्यताको नहीं समझते यह आश्चर्य और खेदकी बात है ॥१७२३।। १. सत्ता विदोति स्व-आ० । २. वृपतनजी-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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