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________________ २४२ भगवती आराधना संसिलैं शाककुल्माषादिव्यञ्जनसन्मिभूसंसृष्टमेव । 'फलिह' समन्तादवस्थितशाकं मध्यावस्थितौदनं । 'परिखा' परितो व्यञ्जनं मध्यावस्थितान्न । 'पुप्फोवहिदं च व्यञ्जनमध्ये पुष्पबलिरिव अवस्थितसिक्थकं । 'सुद्धगोवहिद' शुद्धेन निष्पावादिभिरमिश्रेणान्नेन 'उवहिदं' संसृष्टं शाकव्यञ्जनादिकं । 'लेवडं' हस्तलेपकारि । डं' यच्च हस्ते न सज्जति । 'पाणगं' यच्च हस्ते न सज्जति । 'पाणगं' पानं च कीदृक् ? 'णिसित्थगंससित्थं' सिक्थरहितं पानं तत्सहितं च ।।२२२।। पत्तस्स दायगस्स य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए । इच्चेवमादिविविहा णादव्वा वुत्तिपरिसंखा ॥२२३।। 'पत्तस्स' एवंभूतेत भाजनेनैवानोतं गृह णामि सौवर्णेन, कंसपाश्या, राजतेन मृण्मयेन वा । 'दायगस्स य' स्त्रियैव तत्रापि बालया, युवत्या, स्थविरया सालङ्कारया, निरलङ्कारया, ब्राह्मण्या, राजपुत्र्या इत्येवमादि अभिग्रहोऽवग्रहः । 'बहुविहो' बहुविधः । 'ससत्तीए' स्वशक्त्या । 'इच्चेवमादि' एवंप्रकारा । 'विविहा' विविधा। 'णायव्वा' ज्ञातव्याः । 'वृत्तिपरिसंखा' वृत्तिपरिसंख्या ।।२२३॥ कायक्लेशनिरूपणायोत्तरप्रबन्धः अणुसूरी पडिसूरी य उढसूरी य तिरियसूरी य । . उब्भागेण य गमणं पडिआगमणं च गंतूणं ॥२२४॥ 'अणुसूरि' पूर्वस्या दिशः पश्चिमाशागमनं क्रूरातपे दिने । 'पडिसूरी' अपरस्या दिशः आदित्याभिमुखं गमनं । 'उढ्ढसूरी य' उध्वं गते सूर्ये गमनं । 'तिरियसूरी य' तिर्यगवस्थितं दिनकरं कृत्वा गमनं । 'उन्भागमेण गमणं' स्वावस्थितग्रामाद् ग्रामान्तरं प्रति भिक्षार्थं गमनं । 'पडिआगमणं च गन्तूणं' प्रत्यागमनं गा०-टी०-'संसि?'-जो शाक कुल्माष आदि ब्यंजनसे मिला हुआ हो । 'फलिह'-जिसके चारो ओर शाक रखा हो और बीचमें भात हो। 'परिखा-- चारो ओर व्यंजन हो बीच में अन्न रखा हो । 'पुप्फोवहिद'-व्यंजनोके मध्यमें पुष्पावलीके समान चावल रखे हो। 'सुद्धगोवहिद'शुद्ध अर्थात् विना कुछ मिलाये अन्नसे 'उपहित' अर्थात् मिले हुए शाक व्यंजन आदि। 'लेवड' जिससे हाथ लिप जाये । 'अलेवड' जो हाथसे न लिप्त हो। सिक्थ सहित पेय और सिक्थ रहित पेय । ऐसा भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूंगा ऐसा संकल्प करता है ॥२२२।। गा०-टी०- पत्तस्स'-इसी प्रकार सोने, चाँदी, कांसी या मिट्टीके पात्रसे ही लाया गया भोजन ग्रहण करूंगा। 'दायगस्स'-स्त्रीसे ही, उसमें भी बालिकासे या युवत्तीसे या वृद्धासे अथवा अलंकार सहित स्त्री या अलंकार रहित स्त्रीसे या ब्राह्मणीसे या राजपूत्रीसे दिया गया आहार ही ग्रहण करूंगा। इस तरह बहुत प्रकार के अभिग्रह अपनी शक्तिके अनुसार होते हैं। ये सब विविध वृति परिसंख्यान जानना चाहिये ॥२२३।। काय क्लेशका कथन करते हैं___ गा०-टी०-'अणुसूरि'-जिस दिन कड़ी धूप हो सूरजको पीछे करके पूरव दिशासे पश्चिम दिशाकी ओर जाना। 'पडिसूरि'--पश्चिम दिशासे सूरजकी ओर मुख करके गमन करना। 'उड्वसूरी'-सूरजके ऊपर आ जाने पर गमन करना, 'तिरियसूरी'-सूरजका एक ओर रखते हुए गमन करना। 'उन्भागेण गमण'--जिस ग्राममें मुनि ठहरे हों उस ग्रामसे दूसरे गाँवमें भिक्षाके १. दिभरमि-अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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