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________________ भगवती आराधना १७४ विचार्यते । किमिदं चित्तं नाम ? मन इति चेद् द्रव्यमनो भावमनश्चेति तद्द्विप्रकार, कस्येह ग्रहणं ? न तावत् द्रव्यमन: पुद्गलत्वादसंभविनी कर्मादाननिमित्ततया परिणतिरिति । 'वज्जिद विसोत्तिगमिति' विशेषणमसंभवीति । न च तद्वशवत् त्मिनः । तेन भावमनो गृह्यते । नोइन्द्रियमतिः सा रागादिसहभाविनी तद्रहिता चास्तीति युज्यते 'वज्जिद विसेसोत्तिगं' इति विशेषणं वसिगमिति च तस्यां घटते । नोइन्द्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमवत आत्मनो वशेन नोइन्द्रियमतिर्वर्तते । तथा हि रागकोपभयदुःखादयो नटादोनां वशेन परिणामा वर्तते तत्कार्य पुलकादिदर्शनेनानुमीयमानाः । तद्वदेव नोइन्द्रियमतिरपि आत्मेच्छया क्वचिदेवावरुद्धानुभूयते इति । 'सो' स: 'समाहिदचित्तो' वहति वहदं धारयति । तथा च प्रयोगः - विषयं वहति धारयति इति गम्यते । 'निरदिचार' निरतिचारं निर्दोषं । किं ? सामण्णधुरं रागकोपानुपप्लुतचित्तः समण इत्युच्यते । तथा च नैरुक्ता वदन्ति 'सममणो' समणो इति । समणस्स भावो सामण्णं । तच्च किं ? समानता चारित्रं । तस्य भारं कीदृशं निरतिचारं निर्मलं । 'अपरिसंतो' अश्रान्तश्चारित्रभारोद्वहनं फलं समाहितचित्तस्येत्याख्यातं भवति । अनिभृतमनस्तायां दोषाख्यानव्याजेन निभृतं मनः कार्यमिति द्रढयत्युत्तरगाथया । कश्चित्कंचिदुज्जयिनीस्थं दक्षिणापथाभिमुखमाह अल्पधान्यः क्षुद्रजनबहुलो द्रमिलदेशः इति । स एवमुक्तं प्रत्येति अयं जनपद: सुभिक्ष: सुजनाधिवासः इति ॥ १३४ ॥ चालणिगयं व उदयं सामण्णं गलइ अणिहुदमणस्स | कायेण य वायाए जदि वि जधुत्तं चरदि भिक्खू || १३५ || क्या है ? यदि चित्तसे मतलब मनसे है तो उसके दो भेद हैं- द्रव्यमन और भावमन । यहाँ किसका ग्रहण किया है ? द्रव्यमनका ग्रहण तो संभव नहीं है क्योंकि पौद्गलिक होनेसे कर्मों के ग्रहणमें निमित्त रूपसे उसकी परिणति संभव नहीं है । तथा 'वज्जिदविसेसोत्तिगं' यह विशेषण भी संभव नहीं है । तथा द्रव्यमन आत्माके वशवर्ती भी नहीं है । अतः चित्तसे भावमनका ग्रहण होता है । वह भावमन नोइन्द्रियमति है और नोइन्द्रियमति रागादि सहित और रागादि रहित होती है । उसमें 'वज्जिद विसेसोत्तिग और 'वसिग' दोनों विशेषण घटित होते हैं । नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम वाले आत्माके नोइन्द्रियमति होती है अतः वह उसके वशवर्ती है । जैसे राग, कोप, भय और दुःख आदि परिणाम नट आदिके अधीन होते है क्योंकि उनका कार्य देखकर दर्शकोंको रागादि होते हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि रागादि परिणाम नट वगैरहके वशवर्ती हैं। उसी तरह नोइन्द्रिय मति भी आत्माकी इच्छासे किसी एक विषयमें रुकी हुई अनुभवमें आती है । अर्थात् आत्माकी इच्छानुसार भावमन किसी भो विषयमें लीन हो जाता है ! वह समाहित चित्त निर्दोष 'सामण्णधुरा' को धारण करता है । जिसका चित्त राग द्वेषसे अबाधित होता है उसे समण कहते हैं । निरुक्तिकार कहते हैं 'सममणो समणो' समता युक्त मन जिसका है वह समण है और समणके भावको सामण्ण कहते है । वह समानता चारित्र है । उसके निरतिचार अर्थात् निर्मल भारको वह अश्रान्त होकर धारण करता है। इससे यह बतलाया है कि समाहित चित्तका फल चारित्रके भारको धारण करना है । जैसे किसी उज्जयिनीके निवासीको जो दक्षिणापथकी ओर जाता था किसी ने कहा कि द्रमिल देशमें अन्नकी कमी है और क्षुद्र जनोंसे भरा है। उसके ऐसा कहने पर वह जान लेता है कि यह देश सुभिक्षशाली और सुजनोंसे भरा है । उसी तरह चित्तकी चंचलतामें दोष कहने के बहानेसे ग्रन्थकार उत्तर गाथासे यह दृढ़ करते हैं कि मनको निश्चल करना चाहिये ॥१३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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