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विजयोदया टीका
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'चालणिगयं व उदयं' उदकमिव चालनीगतं । 'सामण्ण' सामान्य समानभावो । 'गलइ' गलति । कस्स 'अणिहदमणस्स' अनिभृतं चेतो यस्य । 'कायेण य वायाए' कायेन च वचसा च । 'जदि वि चरदि' यद्यपि चरति प्रवर्तते भिक्षुः । 'जधुत्तं' यथाशास्त्रेणोक्तं । तथा वाक्कायाभ्यामाचरतोऽपि मनोनिभृतताभावे श्रामण्यं नश्यतीत्यर्थः । तस्माच्चेतःसमाधानं कार्यमित्युपसंहारः ॥१३५।।
मनसो दुष्टतां प्रपञ्चेनोपदिश्य तदेवंभूतं मनो यो निगृह्णाति तस्य श्रामण्यं भवति समानभावो नेतरस्येत्येतदुत्तरप्रबन्धेनोच्यते तद्दौरात्म्य प्रकाशनार्थ गाथापञ्चकम्
वादुब्भामो व मणो परिधावइ अट्ठिदं तह समंता ।
सिग्धं च जाइ दूरंपि मणो परमाणुदव्वं वा ।।१३६।। 'वादुम्भामो' इत्यादिकं । 'वादुम्भामो व वात्येव । 'मणो' मनः । 'परिधावई' धावति परिरनर्थकः प्रलंबित इति यथा । 'अद्विदं' इति क्रियाविशेषणं अस्थितं धावति । क्वचिद्विषयेऽनवस्थितिराख्याता मनसः । 'तह समंता' तथा समंतात् । 'दूरं' पि दूरमपि । सिग्धं च जाई' शीघ्रं याति । 'मणो' मनः । 'परमाणुदव्वं वा' परम प्रकृष्टो अणुः सूक्ष्मः परमाणुः स एव द्रव्यं गुणपर्यायगमनात् तदिव । एतेन झटिति दूरस्थितविषयग्रहणं तस्य दौरात्म्यमावेदितं ॥१३६॥
अंघलयबहिरमवो व्व मणो लहुमेव विप्पणासेइ । दुक्खो य पडिणियचेद् जो गिरिसरिदसोदं वा ॥१३७।।
गा-जिसका चित्त चंचल है उसका समान भाव चालनीमें रखे पानीकी तरह गल जाता है । यद्यपि वह भिक्षु कामसे और वचनसे शास्त्रमें कहे अनुसार आचरण करता है ॥१३५।।
टी०--इसका सार यह है कि वचन और शरीरसे शास्त्रानुसार आचरण करने वाले भी साधुका मन यदि निश्चल नहीं है तो उसका श्रामण्य नष्ट हो जाता है। अतः चित्तको स्थिर करना चाहिये । यह उपसंहार है ॥१३५॥
मनकी दुष्टताका विस्तारसे कथन करके, इस प्रकारके मनको जो वशमें करता है उसके समान भावरूप श्रामण्य होता है, अन्यके नहीं होता, यह आगे कहते हैं। प्रथम ही पाँच गाथाओं से मनकी दुष्टता प्रकट करते हैं
गा--बड़े जोरसे चलने वाली हवाकी तरह मन उसीकी तरह चहुँ ओर अस्थिर रूपसे दौड़ता है । और परमाणु द्रव्यकी तरह मन दूरवर्ती भी वस्तुके पास शीघ्र जाता है ।।१३६॥
____टी–प्रचण्डवायुकी तरह मनके अस्थिर गमनसे यह बतलाया है कि मन किसी भी विषयमें स्थिर नहीं रहता। तथा दूरवर्ती वस्तुके पास परमाणु द्रव्यकी तरह शीघ्र जाता है। परम अर्थात् प्रकृष्ट, अणु अर्थात् सूक्ष्म जो है वह परमाणु हैं। वह परमाणु द्रव्य है क्योंकि गुण पर्यायों वाला है। इससे मनकी दुष्टता बतलाई है कि वह दूर स्थित विषयको झट ग्रहण कर लेता है ( जैसे परमाणु एक समयमें चौदह राजु गमन करता है ) ॥१३६॥
गा--मन अन्धे बहरे और गूगेके समान है शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। और पहाड़ी नदीके प्रवाहकी तरह लौटाना अशक्य है ।।१३७॥
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