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________________ भगवती आराधना 'अंधलयबहिरमूओ व मणो हवई' इति शेषः । अंधवद्बधिरवन्मूकवच्च भवति मनः । कदाचित्कथंचित्क्वचिद्विषये सक्तं मनः सन्निहितमपि विषयं न पश्यति, न शृणोति, न ब्रवीति, इति । ननु चक्षुरादेः कर्तृता दर्शनादौ न मनसस्तत्सर्वदापि न किंचित्पश्यति, न शृणोति वक्ति वा ? उच्यते - मनसः करणस्य कर्तृता परशुश्च्छिनत्तीति यथा । एतदुक्तं भवति - द्रष्टव्ये जीवादिके, श्रोतव्ये जिनवचनादिके, स्वपरहिते वाक्ये च कदाचिदप्रवृत्तिर्मनसो दुष्टतेति । यथा भृत्यो दुष्ट इत्युच्यते स्वामिना नियुक्ते कर्मण्यप्रवर्तमानः । एवं मनोऽप्यात्मना नियुक्तेऽव्यापृते दुष्टमिति भावः । 'लहुमेव विप्पणादि य' आशु विनश्यति च । अनित्यतादोषस्तु वस्तुयाथात्म्यग्राहिणो मनसः नो इन्द्रियमतेः । 'दुक्खो य' दुःखं अशक्यं । 'पडिनियत्तेदु' जं' प्रतिनिवर्त्तयितु वस्तु 'न्यभूतरूपग्रहणे भूतरूपनिरासे च प्रवृत्तं ताभ्यां निवर्तयितुं न शक्यं रागादिसहचारित्वात् प्रतिनिवर्तयितु । किमिव गिरिसरिदसोदंव्व' गिरिनदीप्रवाह इव ॥ १३७॥ १७६ तत्तो दुक्खे पंथे पाडेदु ं दुट्टओ जहा अस्सो | वीणमच्छोव्व मणो णिग्धेत्तुं दुक्करो धणिदं ॥ १३८|| 'तत्तो' तस्मात्प्रतिनिवर्तनात् । 'दुषखे' दुष्करे 'पये' मार्गे । 'पाडे' पातयितुं । किमिव । 'दुट्ठओ जहा अस्सो' दुष्टोऽतिव्यालो यथैवाश्वः । एतेन दुष्करमार्गावपातित्वदोषः प्रकटितः । 'वीलणमच्छोव्व' मसृणतरदेहमत्स्य इव । 'घणिदं दुक्करो णिघेत्तुं नितरां दुष्करं ग्रहीतुं मनः । एतेन दुरवग्रहता ख्याता ॥ १३८ ॥ टी० - मन अंधे, बहरे और गूंगे मनुष्यकी तरह है क्योंकि कभी-कभी किसी विषयमें आसक्त मन निकटवर्ती भी विषयको नहीं देखता, नहीं सुनता, और नहीं बोलता । शङ्का — देखने आदिका काम तो चक्षु आदि इन्द्रियोंका है, मनका नहीं । मन तो सदा ही न कुछ देखता है, न सुनता है, न बोलता है । समाधान -मन करण है फिर भी उसे कर्ता कहा है । जैसे परशु लकड़ी काटनेमें करण है फिर भी उसे कर्ता कहा जाता है परशु काटता है । इसका आशय यह है कि देखने योग्य जीवादिमें, सुनने योग्य जिन वचन आदिमें और स्वपरका कल्याण करने वाले वचनोंमें मनका प्रवृत्त न होना उसकी दुष्टता है । जैसे जो सेवक स्वामीके द्वारा कहे गये कार्य में प्रवृत्त नहीं होता उसे दुष्ट कहा जाता है । उसी तरह मन भी आत्माके द्वारा नियुक्त कार्यमें प्रवृत्त न होनेसे दुष्ट कहा जाता है । तथा शीघ्र नष्ट हो जाता है । इससे वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करने वाले मनकी अनित्यताका दोष बतलाया है । तथा वस्तुके अविद्यमान स्वरूपको ग्रहण करनेमें और विद्यमान स्वरूपका निरास करनेमें प्रवृत्त हुए मनको उससे हटाना वैसे ही अशक्य है जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाहको लौटाना अशक्य होता है; क्योंकि मन रागादिभावमें आसक्त होता है || १३७|| गा० - अयोग्य विषयसे हटानेसे मन दुष्कर मार्ग में गिराता है । जैसे दुष्ट घोड़ा गिराता है । अति चिकने मच्छकी तरह पकड़ने में अत्यन्त दुष्कर है || १३८|| टी० - जैसे कुमार्ग पर चलते हुए दुष्ट घोड़ेको रोकनेसे वह मार्ग में गिरा देता है वैसे ही मन भी खोटे मार्ग में गिराता है । इससे दुष्कर मार्गमें गिरानेका दोष प्रकट किया । तथा जैसे १. तुं यदन्य आ० मु० । २. द्वाभ्यां आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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