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________________ विजयोदया टीका त्वेनाध्यवसितो बान्धवादिरसौ सहायो न भवतीति न तत्रादरः कार्यः । सम्यक्त्वज्ञानचारित्रात्मकस्तु धर्मः । धर्मोऽपि जीवपरिणाम उपकारि सहाय इति । तत्रादरो जन्यते सूरिणा । अतिशयितधर्माख्यसहा 'यानिरूपणेन ज्ञातिधनादीनां तथाभूतसहायताभावात् प्रस्तुतैव सहायता समर्थिता भविष्यति । अत्रोच्यते । सम्यक्त्वादयः शुभपरिणामाः प्रशस्तगतिजाति गोत्रसंघात संहननायुः सद्व द्यादिकमात्मनि निधाय नश्यन्ति तेन देवो मानवः पञ्चेन्द्रियः पर्याप्तकः कुलीनः शुभनीरोगशरीरश्चिरजीवी सुखी भविष्यति । धर्मानुबन्धिनः पुण्यस्योदयात् दीक्षाभिमुखा बुद्धिनिरतिचाररत्नत्रयसंपत्तिश्च भविष्यतीति संभवत्युपकारसहायता धर्मस्य । ननु च ज्ञानपूर्वकत्वाच्चरणस्य 'सम्मत्तचरणसुदमइगो' इति कथमुपन्यस्तं ? अयमस्याभिप्रायः सत्यपि श्रुतज्ञाने असंयतसम्यग्दृष्टेश्चारित्राभावान्न महत्यौ संवरनिजरे मुख्यगुणे भवतः । तस्मान्मुख्यार्थिनश्चारित्रं प्रधानं किंच तज्ज्ञानमुपायश्चारित्रमुपेयं अतः परार्थत्वाज्ज्ञानमप्रधानं उपेयत्वाच्चरणं प्रधानमिति । 'जो पुण धम्मो जोवेण कदो' इत्यनेन धर्मस्य सर्वथा नित्यत्वं प्रतिषिद्धं फलवैचित्र्यमनुभवसिद्धं सर्वदैकरूपत्वं धर्मस्य विरुध्यते । सुखसाधनानां स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यादीनां वैचित्र्यात् तत्कार्यसुखस्याऽपि वैश्वरूप्यं नित्यत्वेपि धर्मस्य घटयेदिति चेत् अत्रोच्यते । अतिशयितानतिशयितसुखसाधनता तस्य धर्महेतुता न वेत्यत्र विकल्पद्वये धर्महेतुत्वाम्युपगमे समाधान - यह दोष उचित नहीं है क्योंकि जिस जीवने यहाँ जिस बन्धु आदिको अपना सहायक रूपसे माना हुआ है वह सहायक नहीं है इसलिये उसमें आदरभाव नहीं करना चाहिये । सम्यक्त्व ज्ञान चारित्ररूप धर्म जीवका परिणाम होनेसे उसका उपकारी सहायक है । इसलिये आचार्य उसमें आदर कराते हैं । ७७७ शङ्का - सातिशय धर्मके सहाय होनेका कथन न करके भी जाति बन्धु धन आदि उस प्रकारके सहायक नहीं होनेसे प्रस्तुत धर्मादिके ही सहायक होनेका समर्थन होता है । समाधान- सम्यक्त्व आदि शुभपरिणाम आत्मामें उत्तम गति, उत्तम जांति, उत्तम गोत्र, उत्तम संहनन, आयु, सातावेदनीय आदि कर्मों को उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं । उन कर्मों के उदयसे जीव, देव अथवा पंचेन्द्रिय पर्याप्तक कुलीन, शुभ नीरोग शरीर वाला चिरजीवी और सुखी होता है तथ धर्मानुबन्धि पुण्यके उदयसे बुद्धि मुनिदीक्षाके अभिमुखी होती है और निरतिचार रत्नत्रयरूप सम्पत्ति होती है । अतः धर्म सहायक और उपकारी है । शङ्का — चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है अतः ग्रन्थकारने 'सम्यक्त्वचारित्र श्रुतमत्तिक' कैसे कहा ? यहाँ चारित्रके पश्चात् ज्ञानका निर्देश किया है ? समाधान – इसका अभिप्राय यह है कि असंयत सम्यग्दृष्टिके श्रुतज्ञान होनेपर भी चारित्रका अभाव होनेसे बहुत अधिक संवर और निर्जरा ये दोनों मुख्य गुण नहीं होते । इसलिये जो संवर और निर्जराके अर्थी हैं उनके लिये चारित्रकी प्रधानता है । तथा ज्ञान उपाय है और चारित्र उपेय है अतः परार्थ होनेसे ज्ञान अप्रधान है तथा उपेय - उपाय द्वारा प्राप्य होनेसे चारित्र प्रधान है । 'जो धर्म जीवने किया' ऐसा कहनेसे धर्मके सर्वथा नित्य होनेका निषेध किया है । धर्मके फलकी विचित्रता अनुभव से सिद्ध है । अतः धर्मकी सर्वदा एकरूपता आगम विरुद्ध है । शङ्का - सुखके साधन स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला आदि अनेक हैं अतः उनका कार्य सुख भी अनेक रूप है । इस तरह धर्मको नित्य मानने पर भी फल की विचित्रता बन जाती है । समाधान - कुछ साधन सातिशय सुखदायक होते हैं और कुछ साधारण सुखदायक होते १. सहायनि - अ० मु० । २. वास - अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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