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विजयोदया टीका
१३५ आत्महितापरिज्ञाने दोषमाचष्टे
आदहिदमयाणंतो मुज्झदि मूढो समादियदि कम्मं ।
कम्मणिमित्तं जीवो परीदि भवसायरमणंतं ।।१०१।। ''आदहिदमयाणतो' आत्महितमबुध्यमानः । 'मुज्झदि' मुह्यति अहितं हितमिति प्रतिपद्यते । मोहे को दोष इत्यत आह–'मूढो' मोहवान् 'समादियदि' समादत्ते । 'कम्म' कर्मसामान्यशब्दोप्ययं अशुभकर्मवृत्तिग्राह्यः । कर्मग्रहणे को दोष इत्यत आह–'कम्मणिमित्तं' कर्महेतुकं, जीवः 'परीदि' परिभ्रमति । किं 'भवसायरम्' भवसमुद्रं 'अणंतं' अनन्तम् ॥१०१॥ आत्महितपरस्योपयोगमादर्शयति
जाणंतस्सादहिदं अहिदणियत्ती य हिदपवत्ती य ।
होदि य तो से तम्हा आदहिदं आगमेदव्वं ॥१०२।। 'जाणतस्स' जानतः । 'आदहितं' आत्महितं । 'अहिदणियत्ती य' अहितनिवृत्तिश्च । 'हिदपवत्तीय' हिते प्रवृत्तिश्च । 'होदि य' भवति च । 'तो' ततः हितज्ञानात्पश्चात् । 'तह्मा' तस्मात् ‘आदहिदं' आत्महितं । 'आगमेदव्वं' शिक्षितव्यम् । अत्र चोद्यते-ननु आत्महितज्ञस्य हिते प्रवृत्तिभवतु, अहितान्निवृत्तिः कथं ? अहितज्ञोऽहितान्निवर्तते, हितमहितं च भिन्नमेव । यद्यतो भिन्नं न तस्मिन्नवगते तदन्यदवगतं भवति । यथावानरेऽवगते न मकरः, भिन्नं च हितादहितं तस्माद्धितज्ञोऽहितं अजानन् कथमहितान्नियोगतो निवर्तेत ? अत्रो
आत्महितका ज्ञान न होनेके दोष कहते हैं___गा०-आत्माके हितको न जाननेवाला मोहित होता है। मोहित हुआ कर्मको ग्रहण करता है । और कर्मका निमित्त पाकर जीव (अणतं) अनन्त भवसागरमें भ्रमण करता है ॥१०१॥
टी०-आत्महित या आत्मा और हितको जाननेवाला अहितको हित मानता है। यही मोह है। इस मोहमें क्या दोष है ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि मोही जीव कर्मको ग्रहण करता है । यहाँपर यद्यपि कर्म सामान्य कहा है तथापि अशुभकर्म ग्रहण करना चाहिए। कर्मोके ग्रहणमें क्या दोष है ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि कर्मके कारण जीव भव समुद्रमें अनन्तकाल तक भ्रमण करता है ॥१०१।।
आत्महितके ज्ञानका उपयोग दिखलाते हैं
गा०-आत्महितको जाननेवालेके अहितसे निवृत्ति और हितमें प्रवृत्ति होती है। हिताहितके ज्ञानके पश्चात् उसका हिताहित भी जानता ही है। इसलिए (आदहिदं) आत्महितको आगमसे सीखना चाहिए ।।१०२।।
___टी०-शंका-आत्महितको जाननेवालेको हितमें प्रवृत्ति होओ, किन्तु अहितसे निवृत्ति कैसे ? जो अहितको जानता है वह अहितसे निवृत्त होता है। तथा हित और अहित भिन्न हैं। जो जिससे भिन्न होता है उसके जाननेपर उससे भिन्नका ज्ञान नहीं होता । जैसे बन्दरको जाननेपर मगरका ज्ञान नहीं होता। और हितसे अहित भिन्न है अत हितको जाननेवाला अहितको नहीं जानता। तब वह कैसे नियमसे अहितसे निवृत्त होगा?
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