SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 656
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८२ विजयोदया टीका 'सव्वस्थ होइ' सर्वत्र भवति गमने आगमने च 'लघुगो' लघः । 'रूवं वेसासिगं रूपं विश्वासकारि च भवति । 'तस्स' निर्ग्रन्थस्य । वस्त्रप्रावरणादिकप्रच्छादितशस्त्रोऽस्माकमुपद्रवं करोति धनं वा स्वेन चीवरादिना प्रच्छाद्य नयतीति शङ्कां कुर्वन्ति परिग्रहं दृष्ट्वा ॥११७०॥ सव्वत्थ अप्पवसिओ णिस्संगो णिब्भओ य सव्वत्थ । होदि य णिप्परियम्मो णिप्पडिकम्मो य सव्वत्थ ॥११७१।। 'सत्वत्थ अप्पवसिगो' सर्वत्र ग्राम, नगरे, अरण्ये च आत्मवशकः । 'णिस्संगो' निष्परिग्रहः । 'सव्वत्य यणिन्भओ' सर्वत्र निर्भयश्च । 'होदि य णिप्परिकम्मो' भवति च निर्व्यापारः कृष्यादिक्रियाप्रारम्भरहितः । 'णिप्पडिकम्मा य' इदं पूर्वकृतं इदं परत्रावशिष्ट कार्यमित्येतच्चास्य न विद्यते ॥११७१॥ सुखाथिनो महत्सुखं भवति संगपरित्यागेनेति वदति भारक्कंतो पुरिसो भारं ऊरुहिय णिव्वुदो होइ ।। जह तह पयहिय गंथे णिस्संगो णिव्वुदो होइ ।।११७२।। 'भारक्कंतो पुरिसो' भाराक्रान्तः पुरुषः । 'भारं ऊरुहिय' भारमवतार्य । ‘णिव्वुदो होदि' सुखी भवति । यथा तथा 'णिस्संगो णिव्वुदो होदि' निष्परिग्रहः सुखी भवति । 'गंथे पयहिय' ग्रन्थान्परित्यज्य । बाधाभावलक्षणं हि सुखं सर्वमेव । तथाहि-अशनादिना क्षुधादावपगते जातं स्वास्थ्यमेव सुखमिति 'लोके मन्यते ॥११७२॥ यस्मादेवं परिग्रहणेऽतिबहवो जन्मद्वयभाविनो दोषाश्च तम्हा सव्वे संगे अणागए वढमाणए तीदे । तं सव्वत्थ णिवारहि करण कारावणाणुमोदेहिं ॥११७३।। गा०--अपरिग्रही सर्वत्र जाने आनेमें हल्का रहता है । उसका रूप नग्न दिगम्बर विश्वासकारी होता है । और परिग्रही परिग्रहके भारसे भारी होता है। और उसके परिग्रहको देखकर लोग शङ्का करते हैं कि यह अपने वस्त्रोंमें शस्त्र छिपाये हुए है कोई उपद्रव न करे । अथवा यह अपने चीवर आदिमें छिपाकर धन तो नहीं ले जाता ? ॥११७०।। गा०-जो अपरिग्रही होता है वह सर्वत्र गाँव, नगर और वनमें स्वाधीन रहता है । उसे किसीका आश्रय लेना नहीं होता। और वह सर्वत्र निर्भय रहता है । उसे कृषि आदि काम करना नहीं होता। तथा इतना काम पहले कर लिया, इतना करना शेष है, इत्यादि चिन्ता उसे नहीं रहती ॥११७१॥ आगे कहते हैं कि सुखके अभिलाषीको परिग्रहके त्यागसे महान् सुख होता है गा०-जैसे भारसे लदा हुआ मनुष्य भारको उतारकर सुखी होता है वैसे ही परिग्रहको त्यागकर परिग्रहरहित साधु सुखी होता है। सर्वत्र सुखका लक्षण बाधाका अभाव है। लोकमें भी भोजनके द्वारा भूख प्यास चले जाने पर उत्पन्न हुई स्वस्थताको ही सुख माना जाता है ॥११७२।। १. लोको-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy