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________________ भगवती आराधना ११२ करोति । तच्चेत्प्रवर्तते निरतिचारमक्लेशेन नैव भक्तप्रत्याख्यानमर्हति । इदानीमहं यदि न त्यागं कुर्यां निर्यापकाः पुनर्न लप्स्यन्ते सूरयस्तदभावे नाहं पंडितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्त प्रत्याख्यानाई एव ||७४ || यदि च सुलभा निर्यापका अनागतदुर्भिक्षभयं च यदि न स्यान्न भवत्यर्हः इति कथयति तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो ॥ सो मरणं पच्छितो होदि हु सामण्णणिग्विण्णो ||७५ || 'तस्स' तस्य । 'ण' 'कम्पदि भत्तवद्दण्णं' न योग्यं प्रत्याख्यानं भक्तस्य । 'भये पुरदो अणुवट्ठिवे' भये पुरस्तादनुपस्थिते । 'सो' सः । निरतिचारश्रामण्यः सुलभनिर्यापकः अनुपस्थितदुर्भिक्षभयः । 'मरणं' मृति । 'पेच्छं तो' प्रार्थयमानः । खुशब्द एवकारार्थः । एवमसौ संभावनीयः 'सामण्णणिग्विण्ण एव होदित्ति' श्रामण्याण्यान्निर्विण्ण एव संभवतीति । ननु च अरिहेति अर्ह एवं सूचितो नानर्हः, तत्किमर्थमसू त्रितव्याख्या क्रियते, सूत्रकारेण ? अर्हप्रसंगादायातमिति केचित् । अनर्हमपि लक्षणतया अनर्हत्वं सूचितं इति वा न दोषः । स्वपर'भावाभावोभयाधीनात्मलाभत्वात्सर्ववस्तूनां इति मन्यते ॥ अरिहोत्ति गदम् ॥७५॥ पलता है तो वह भक्तप्रत्याख्यानके योग्य नहीं है उसे भक्तप्रत्याख्यान मरण नहीं करना चाहिए । तथा यदि इस समय मैं भक्तप्रत्याख्यान नहीं करता तो फिर मुझे समाधिमरण करानेवाले निर्यापकाचार्य नहीं मिलेंगे। उनके अभाव में मैं पण्डितमरणकी आराधना नहीं कर सकता । ऐसा यदि भय है तो भक्तप्रत्याख्यानके योग्य ही है । अर्थात् यदि ऐसा भय न हो और आराधनामें सहायक उस कालमें और आगे भी सुलभ हों तो उक्त भयसे तत्काल भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य नहीं है । इसी तरह यदि दुर्भिक्षका भय हो कि आगे धान्यका विनाश होनेसे भिक्षाके विना मेरे चारित्रकी हानि होगी तो भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य है, नहीं तो अयोग्य है ||७४ || यदि निर्यापक सुलभ हों और आगे दुर्भिक्षका भय न हो तो भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य नहीं है, ऐसा कहते हैं गा०-- आगे भयके अनुपस्थित होते हुए उसका भक्तप्रत्याख्यान योग्य नहीं है । वह यदि मरणकी प्रार्थना करता है तो मुनिधर्मसे विरक्त ही होता है ॥७५॥ टी० - जिसका चारित्र निरतिचार पलता है, निर्यापक भी सुलभ हैं और दुर्भिक्षका भय भी नहीं है फिर भी यदि वह मरना चाहता है तो ऐसी सम्भावना होती है कि वह मुनिपदसे विरक्त हो गया हैं । शंका- 'अरिह' इस पदसे 'अहं' ही सूचित होता है 'अनर्ह' अयोग्य नहीं । तब ग्रन्थकारने सूत्र विरुद्ध व्याख्या क्यों की ? समाधान--'अहं' के प्रसंगसे 'अनर्ह' आया है ऐसा कोई कहते हैं अथवा लक्षणासे 'अर्ह' भी 'अन' को सूचित करता है इसलिए कोई दोष नहीं है । क्योंकि सब वस्तुएँ स्वका भाव और परका अभाव, दोनोंके होनेसे ही आत्म लाभ करती हैं ऐसा माना जाता है || ७५॥ इस प्रकार 'अरिह' अधिकार समाप्त हुआ । १. वो नया-आ० मु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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