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________________ १०० भगवती आराधना परिणामः पुनः कादाचित्कत्वात् मनुष्यत्वादिक्रोधादिवत्पर्याया, इति चेन्ननु गुणपर्ययवद्रव्यमित्यादावुभयोपादाने अवांतरभेदोपदर्शनमेतद्यथा 'गोबलीवर्दम्' इत्युभयोरुपादाने पुनरुक्ततापरिहृतये स्त्रीगोशब्दवाच्या इति कथनमेकस्यैव गुणशब्दस्य ग्रहणे धर्ममात्रवचनता। अहिंसादयश्च ते गुणाः अहिंसादिगुणाः । 'मिच्छत्तकडुगिदा' मिथ्यात्वेन तत्त्वाश्रद्धानेन । कडुगिदा कटूकृताः कटुकतां गताः । ‘होंति' भवति । कदा मरणे मरणकाले ते अफला भवंति । कस्य मिथ्यात्वकटूकृताहिंसादिगणस्यात्मनः । किमिव ? दुद्धवं क्षीरमिव । कीदृग्भूतं ? 'कडुअदुद्धियगदं' कटकालाबूपगतम् यथा अफलं फलरहितं । पित्ताद्युपशमनं प्रीतिरित्यादिकं यत्फलं क्षीरस्य प्रतीतं तेन फलेन अफलं जातम् । यथा क्षीरं भाजनदोषादेवं मिथ्यात्ववत्यात्मनि स्थिता अहिंसादिगुणा स्वसाध्येन फलेन न फलवंतः । पंचानुत्तरविमानवासित्वं लोकांतिकत्वमित्याद्यभ्युदयफलमिह गृहीतं । अहिंसादयो न स्वोचितफलातिशयदायिनः दुष्टभाजनस्थितत्वात् कटुकालाबुकगतपयोवदिति सूत्रार्थः ॥५६॥ न केवलं फलातिशयाकारित्वं अहिंसादिगुणानां, अपि तु मिथ्यात्वकटुकिते स्थिता दोषानपि कुर्वन्ति इत्याचष्टे जह भेसजं पि दोसं आवहइ विसेण संजुदं संतं ॥ तह मिच्छत्तविसजुदा गुणा वि दोसावहा होति ।।५७॥ 'यथा भेसजं पि' इति स्पष्टतया न व्याख्यायते। 'मिच्छत्तविसजुदा' मिथ्यात्वेन विषेण संबद्धाः आदि जो आत्माके साथ रहते हैं वे ही गुण हैं । हिंसादिके त्याग रूप परिणाम तो कभी होते हैं, कभी नहीं होते । अतः मनुष्यत्वकी तरह या क्रोधादिकी तरह पर्याय हैं, गुण नहीं हैं ? ___ समाधान-'गुण पर्यायवान्को द्रव्य कहते हैं' इत्यादिमें गुण और पर्याय दोनोंका ग्रहण किया है । जैसे 'गोवलोवर्द' यहाँ गो और बलीवर्द दोनोंको ग्रहण करने पर पुनरुक्तता दोष आता है क्योंकि दोनों शब्दोंका अर्थ एक है। इस पुनरुक्तता दोषको हटानेके लिये 'गो' शब्द गायका वाचक है ऐसा कहा है । एक गुण शब्दका ग्रहण करने पर वह धर्ममात्रको कहता है अतः कोई दोष नहीं है । वे अहिंसादि गुण मरते समय यदि तत्त्वके अश्रद्धान रूप मिथ्यात्नसे दूषित होते हैं तो मिथ्यात्वसे दूषित अहिंसा आदि गुण वाले आत्माके कटुक तूम्बीमें रखे दूधकी तरह निष्फल होते हैं । दूधका फल चित आदिको शान्त करना प्रसिद्ध है। किन्तु भाजनमें दोष होनेसे वह दूध फल रहित होता है । इसी तरह मिथ्यात्ववान् आत्मामें रहने वाले अहिंसा आदि गुण अपना साध्य जो फल है उससे फलवान नहीं हैं। यहाँ पाँच अनुत्तर विमानका वासी देव होना या लोकान्तिकदेव होना इत्यादि अभ्युदयरूप फलका ग्रहण किया है। अतः कटुक तूम्बीमें रखे दूधकी तरह सदोष भाजनमें रहनेके कारण अहिंसा आदि अपने उचित फलातिशयको नहीं देते, यह गाथा सूत्रका अभिप्राय है ।। ५६ ॥ अहिंसा आदि गुण केवल फलातिशयकारी ही नहीं हैं, बल्कि मिथ्यात्वसे कलुषित आत्मामें स्थित अहिंसादि दोष भी करते हैं, यह कहते हैं गा-जैसे औषध भी विषसे सम्बद्ध होने पर दोष करती है। उसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी विषसे सम्बद्ध अहिंसा आदि गुण भी दोषकारी होते हैं ।। ५७ ।। टो०-विष मिश्रित औषधकी तरह मिथ्यात्वरूपी विषसे सम्बद्ध अहिंसा आदि गुण भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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