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________________ विजयोदया टीका प्रतिलेखनसाध्यप्रयोजनाख्यानायोत्तरगाथाद्वयम् इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे । उव्वत्तणपरिवत्तण पसारणाउंटणामरसे ।।९५॥ 'यस्य येन हि संबन्धो दूरस्थमपि तस्य तत्' इत्यनेन क्रमेण संबन्धः-'इरियादाणे' पडिलेहणेण पडिलिहिज्जदित्ति एवं सर्वत्र । ईर्यायां गमने व्रजतः स्वपादनिक्षेपदेशे दुष्परिहाराः यदि स्युः पिपीलिकादयोऽथवा प्राक् पादावलग्नरजसो विरुद्धयोनिभूिमिरुत्तरा जलं प्रवेष्टव्यं यदि 'पडिलेहणेण' प्रतिलेखनेन 'पडिलेहिज्जवि निराक्रियते त्रसादिकं । 'आदाने' ग्रहणे ज्ञानचारित्रसाधनानां । "णिखेवे विवेके' । ज्ञानसंयमोपकरणानां निक्षेपे स्थापनायां । यन्निक्षिप्यते यत्र च तदुभयप्रमार्जनं कायं। शरीरमलानां उच्चारादीनां 'विवेके' उत्सर्जने वा कर्तरि प्रदेशः । सा च भर्यद्ययोग्या प्रमार्जनीया। 'ठाणे निसीयणे सयणे' स्थाने आसने च शयनकियायां । 'उव्वत्तपपरियत्तणपसारणाउंटणामरसे। 'उन्वत्तणं' उत्तानशयनं । 'परिवत्तणं' पावातरसंचार, 'पसारणं' प्रसारणं हस्तपाददीनां । आउंटणं संकोचनं । स्पर्शनक्रिया 'आमरसशब्देनोच्यते' । पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ चिण्हं च होइ सगपक्खे । विस्सासियं च लिंगं संजदपडिरूवदा चेव ॥९६॥ ___चिण्हं च होदि' चिह्नतां भजते । 'सगपक्खे' स्वप्रतिज्ञायां । सर्वजीवदया हि यतेः पक्षः । विस्सासियं च' विश्वासकारि च जनानां । 'लिंग' प्रतिलेखनाख्यं कथमयमतिसूक्ष्मान्कुंथ्वादीनपि परिहत्तं, गृहीतप्रति अव प्रतिलेखनका प्रयोजन बतलानेके लिये दो गाथा कहते हैं गा०-गमनमें, ग्रहणमें, रखने में मल त्यागमें स्थानमें बैठनेमें शयनमें ऊपरको मुखा करके सोने में करवट लेने में हाथ पैर फैलाने में संकोचनमें और स्पर्शनमें पीछीसे परिमार्जन करना चाहिये ॥१५॥ टी०-जिसका जिसके साथ सम्बन्ध होता है दूर होते हुए भी वह उसका होता है, इस क्रमके अनुसार प्रतिलेखनके दूर होते हुए भी यहां उसके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिये। ईर्या अर्थात गमन करते हए यदि अपने पैर रखनेके देशमें चींटी आदिको दूर करना अशक्य हो, अथवा अपने पैरोंमें लगी हुई धूलसे आगेकी भूमि विरुद्ध योनि वाली हो या यदि जलमें प्रवेश करना हो तो पीछीसे त्रसादि जीवोंको दूर करना चाहिये । अर्थात् पीछीसे उस देशका पैर आदि का परिमार्जन करके चलना चाहिये । ज्ञान और चारित्रके साधन पुस्तक कमण्डलु आदिको ग्रहण करते समय, या उन्हें रखते समय, जो वस्तु रखें और जहाँ रखे उन दोनोंका प्रमार्जन करना चाहिये-पीछीके द्वारा उन्हें झाड़ना चाहिये । शरीरके मल मूत्रादिका त्याग करते समय यदि भूमि अयोग्य हो तो उसका प्रमार्जन करना चाहिये। स्थान, आसन और सोते समय मुख ऊपर करके सोते हुए या करवट लेते समय या हाथ पैर फैलाते और संकोचते समय, किसी वस्तु को छूते समय पीछेसे प्रमार्जन करना चाहिये । यहाँ आमरस शब्दसे स्पर्शन क्रियाको कहा है ।।१५।। गा०-उक्त क्रिया करते समय पाछेके द्वारा प्रतिलेखना करना चाहिये, इस प्रकार पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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