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________________ ६१२ भगवती आराधना भाव माहात्म्यं कथयति ण करेदि भावणाभाविदो खु पीडं वदाण सव्वेसि। साधू पासुत्तो समुहदो व किमिदाणि वेदंतो ॥१२०६।। 'ण करेदि खु' न करोत्येव । कः ? 'भावणाभाविदो' भावनाभिर्भावितः । 'पीडं' पीडां । 'वदाणं' व्रतानां । 'सर्वेसि' सर्वेषां । 'साधू' साधुः । 'पासुत्तो' प्रकर्षेण निद्रामुपगतः । 'समुहदो व' समुद्धातं गतो वा । 'किमिदाणि' किमिदानीं। 'वेवितो' चेतयमानः ॥१२०६॥ एदाहिं भावणाहिं हु तम्हा भावेहि अप्पमत्तो तं । अच्छिद्दाणि अखंडाणि ते भविस्संति हु वदाणि ॥१२०७॥ 'एवाहि' एताभिः । 'भावणाहिं' भावनाभिः । 'तम्हा' तस्मात् । 'भावेहि' भावय । 'अप्पमत्तो तं' अप्रमत्तस्त्वं । 'अच्छिद्दाणि' अच्छिद्राणि । नैरन्तर्येण प्रवृत्तानि । 'अखंडानि' सम्पूर्णानि तव भविष्यन्ति व्रतानि ॥१२०७॥ व्रतपरिणामोपघातनिमित्तानि शल्यानि ततस्तद्वर्जनं कार्यमित्याचष्टे. णिस्सल्लस्सेव पुणो महव्वदाइं हवंति सव्वाइं । वदमुवहम्मदि तीहिं दु णिदाणमिच्छत्तमायाहिं ॥१२०८।। "जिस्सल्लस्सेव' शल्यरहितस्यैव । शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरकण्टकादि शरीरादिप्रवेशि तेन तुल्यं यत्प्राणिनो बाधानिमित्तं, अन्तनिविष्टं परिणामजातं तच्छल्यमिह गृहीतं । 'महम्वदाइ" महाव्रतानि भवन्ति । शल्यं कस्यचिदेव व्रतस्योपघातकं, यथा एषणासमित्यभावो अहिंसाव्रतस्येत्याशङ्कां निरस्यति सर्वशब्दो । नन च महत्त्वेन व्रतमवशेष्यं । मिथ्यात्वादिशल्यं अणुव्रतान्यपि हन्त्येव । सत्यं प्रस्तुतत्वान्महाव्रतानामित्थमुक्त। भावनाका माहात्म्य कहते हैं गा०-भावनाओंसे भावित साधु गहरी नींदमें सोता हुआ भी अथवा मूर्छित हुआ भी सब व्रतोंमें दोष नहीं लगाता । तब जागते हुए की तो बात ही क्या है ॥१२०६॥ __गा०-इसलिये हे क्षपक ! तुम प्रमाद त्यागकर इन भावनाओंसे अपनेको भावित करो। इससे तुम्हारे व्रत निरन्तर बने रहेंगे और सम्पूर्ण होंगे ।।१२०७।। ___शल्य व्रतरूप परिणामोंके घातमें निमित्त होते हैं। अतः उनको त्यागना चाहिये, यह कहते हैं गा-टो०-शल्यरहितके ही सब महाव्रत होते हैं। 'शृणाति' अर्थात् जो कष्ट देता है वह शल्य हैं। जैसे शरीर आदिमें घुसनेवाला बाण, काँटा आदि। उनके समान जो अन्त परिणाम प्राणीको कष्ट पहुँचाने में निमित्त है उसे यहाँ शल्य शब्दसे कहा है। जैसे एषणासमितिका अभाव अहिंसा व्रतका घातक है वैसे ही शल्य किसी एक व्रतका घातक है क्या ? इस आशंका को दूर करनेके लिये सर्व शब्दका प्रयोग किया है। शंका-मिथ्यात्व आदि शल्य अणुव्रतोंका भी घात करते हैं । यहाँ उन्हें महाव्रतोंका घातक क्यों कहा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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