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________________ ६८८ भगवती आराधना 'णीयल्लओव' कस्य नितरां प्रियो भवति पुरुषः । शोभनेन तपसा सर्वजगत्प्रियतां करोति तप इत्यनेन आख्यातम् । 'मावाव होइ विस्ससणिज्जो' मातेव विश्वसनीयो भवति लोकस्य । सर्वजगद्विश्वास्यत्वं तपःसम्पाद्यमनेन कथ्यते ॥१४५८॥ कल्लाणिढिसुहाइं जावदियाइ हवे सुरणराणं । जं परमणिन्वुदिसुहं व ताणि सुतवेण लब्भंति ।।१४५९॥ 'कल्लाणिढिसुहाइ” कल्याणानि स्वर्गावतरणादीनि ऋद्धयो विभूतयश्चक्रलाञ्छनानां अर्द्धचक्रवर्तिनां सुखानि च यानि देवानां मनुष्याणां च, यच्च परमनिवृतिसुख तानि शोभनेन तपसा लभ्यन्ते ।।१४५९।। कामदुहा वरघेणू णरस्स चिंतामणिव्व होइ तओ। तिलओव्व णरस्स तओ माणस्स विहूसणं सुतओ ॥१४६०॥ 'कामदुहा' कामदुधा वरधेनुः, चिन्तामणिश्च तपः यदभिलषितं तस्य दानात् । तिलकाख्यालङ्कारो नरस्य शोभनं तपः, मानस्य विभूषणं च । तपसा हि सर्वेण जगता मान्यस्य मानः शोभते इति ॥१४६०॥ होइ सुतवो य दीओ अण्णाणतमंधयारचारिस्स । सव्वावत्थासु तओ वट्ठदि य पिदा व पुरिसस्स ॥१४६१।। 'होइ सुतओ य दीओ' सम्यक्तपः प्रदीपो भवति अज्ञानतमसि महति संचरतः । एतेन जगतोऽज्ञानाख्यं तमो विनाशयति तपः इति सूचितं । सर्वावस्थासु हिते तपो वर्तते पितेव पुंसः ॥१४६१।। विसयमहापंकाउलगड्डाए संकमो तवो होइ। होइ य णावा तरिदुं तवो कसायातिचवलणदिं ॥१४६२॥ गा०–सम्यक् तप करनेसे पुरुष बन्धुकी तरह लोगोंको प्रिय होता है। इससे यह कहा है कि सम्यक् तपसे मनुष्य सब जगत्का प्रिय होता है । तथा सम्यक् तपसे मनुष्य माताकी तरह लोकका विश्वासभाजन होता है । इससे तपसे सर्वजगत्का विश्वासपात्र होना कहा है ॥१४५८॥ गा०-स्वर्गसे अवतरित होना आदि पाँच कल्याणक, चक्रवर्ती और अर्घचक्रियोंकी विभूतियाँ तथा देवों और मनुष्योंके जितने सुख हैं, तथा जो मोक्षका परम सुख है वह सब सम्यक् तपसे प्राप्त होते हैं ॥१४५९॥ गा०-टो०-जो चाहो वह तपसे मिलता है इसलिए सम्यक् तप मनुष्यके लिए कामधेनु और चिन्तामणि रत्नके समान है। तथा मनुष्यके मस्तकपर शोभित होनेवाले तिलक नामक अलंकारके समान है और मानका विशिष्ट भूषण है अर्थात् तपसे सर्वजगत्के द्वारा मान्य पुरुषका मान शोभित होता है ।।१४६०॥ गा०-अज्ञानरूपी घोर अन्धकारमें विचरण करनेवालेके लिए सम्यक तप दीपकके समान है । इससे सूचित किया है कि तप जगत्के अज्ञानरूपी अन्धकारको नष्ट करता है । तथा सम्यक तप सब अवस्थाओंमें पिताकी तरह पुरुषको हितमें लगाता है ॥१४६१। गा०-यह विषय महान् कीचड़से भरे गर्तके समान हैं क्योंकि उससे निकलना बहुत कठिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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