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________________ ४१२ भगवती आराधना वादो हवेज्ज अण्णो जदि अण्णम्मि जिमिदम्म संतम्मि | तो परववदेसकदा सोघी अण्णं विसोधेज्ज || ५८९ ॥ 'घादो हवेन्ज अण्णो' तृप्तो भवेदन्यः । 'जदि अण्णम्मि जिमिदम्मि संतम्भि' यद्यन्यस्मिन्भुक्तवति सति । 'तो' ततः 1 'परववदेसकदा सोधी' परव्यपदेशकृता शुद्धिः । 'अण्णं विसोघेज्ज' अन्यं विशोधयेत् ॥ ५८९ ॥ तवसंजमम्मि अण्णेण कदे जदि सुग्गदिं लहदि अण्णो । तो परववदेसकदा सोधी सोधिज्ज अण्णंपि ॥ ५९० ॥ स्पष्टोत्तरा गाथा । मयत हादो उदयं इच्छइ चंदपरिवेसणा कूरं । जो सो इच्छइ सोघी अकहंतो अप्पणो दोसे || ५९१ || 'मयत हादो' इत्यत्र पदघटनेत्थं । 'जो अप्पणो दोसे अकयँतो सोधी इच्छइ सो मयतण्हादो उदगं इच्छ, चंदपरिवेसणे कूरं इच्छइ य' । य आत्मनो दोषाननभिधाय गुरूणां शुद्धिमिच्छति स मृगतृष्णिकात उदकं वांछति, चन्द्रपरिवेशादशनमिच्छति । निष्फलता साधर्म्यादयं दृष्टान्तदान्तिकभावः । छन्नं ॥ ५९१ ॥ पक्खियचाउम्मासिय संवच्छरिएस सोधिकालेसु । बहुजणसद्दाउलए कहेदि दोसे जहिच्छाए ।।५९२ ।। पक्तियचाउम्मासिय' पक्षाद्यतिचारशुद्धिकालेषु । 'बहुजण सद्दाउलए' बहुजनशब्दसंकटे । 'जधिच्छाए दोसे कमेदि' यथेच्छया दोषानात्मीयान्कथयति ॥ ५९२ ॥ मा०—–यदि अन्यके भोजन करनेपर अन्यको तृप्ति हो तो दूसरेके नामसे की गई विशुद्धि उससे अन्यको शुद्धि कर सकती है ||५८९|| गा०—अन्यके द्वारा तपसंयम करनेपर यदि अन्य व्यक्ति सुगतिको प्राप्त हो सकता हो तो दूसरेके नामसे किया गया प्रायश्चित्त भी दूसरेको शुद्ध कर सकता है ॥५९० ।। शुद्धि चाहता है वह मरीचिकासे जल और अर्थात् जैसे मरीचिकासे जल और चन्द्रके दोषोंको कहे विना शुद्धि नहीं होती । इस गा०—जो अपने दोषोंको न कहकर गुरुसे चन्द्रके परिवेश से भोजन प्राप्त करना चाहता है । परिवेशसे भोजन नहीं प्राप्त होता उसी तरह अपने तरह निष्फलताकी समानता होनेसे दोनों में दृष्टान्त और दाष्टन्तिकभाव है ||५९१|| विशेषार्थं चन्द्रपरिवेशसे भोजन न मिलनेका अर्थ श्रीचन्द्रके टिप्पणमें इस प्रकार किया है— राजाने चन्द्रनामक रसोइयेको निकाल दिया । यह जानकर उसके परिवारने भोजन करना छोड़ दिया । एक दिन जब राजा भोजनके लिए बैठा तो आकाशमें चन्द्रका परिवेश देखकर लोगोंने कहा चन्द्रका परिवेष ( प्रवेश) हो गया। यह सुनकर परिवारने समझा कि राजकुल में चन्द्रनामक रसोइयेका प्रवेश हो गया । वह भोजनके लिए गया किन्तु भोजन नहीं मिला ॥५९१ ॥ मुनिगण अपनेहोता है उस गा० - पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रायश्चित्तके समय जब सब अपने दोष निवेदन करते हैं और इस तरह बहुतसे मनुष्योंके शब्दों का कोलाहल समय जो मुनि अपनी इच्छानुसार दोषको कहता है ॥५९२ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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