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________________ ४९० भगवती आराधना जीवपरिणामायत्तो बन्धो जीवो मृतिमुपैतु नोपेयादा। तथा चाभाणि 'अज्झवसिदेण बंधो सत्तो दु मरेज्ज णो मरिज्जेत्थ । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥ [-समय० २६२ ] जोवास्तदीयानि शरीराणि शरीरग्रहणस्थानं योनिसंज्ञितं यो च वरोवगो वेत्ति तत्सम्भवकालं तत्पीडापरिहारेच्छुरशठस्तपःक्रियायां लोभसत्काराद्यनपेक्ष्य प्रवृत्तो भवत्यहिंसकः । उक्तं च-- णाणी कम्मस्स खयत्थमुट्ठिदो णोठ्ठिदो य हिंसाए। अददि असढो हि यत्थं अप्पमत्तो अवधगो सो॥ [ ] शुभपरिणामसमन्वितस्याप्यात्मनः स्वशरीरनिमित्तान्यप्राणिप्राणवियोगमात्रेण बन्धः स्यान्न कस्यचिन्मुक्तिः स्यात् । योगिनामपि वायुकायिकवधनिमित्तबन्धसद्भावात् । अभाणि च जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरंगवत्थुजोगेण।। पत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवघहेदु ॥ [ ] तस्मान्निश्चयनयाश्रये ण प्राण्यन्तरप्राणवियोगापेक्षा हिंसा ॥८००॥ हिंसागतक्रियाभेदान्निरूपयति पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादाए । एदे पंचपओगा किरियाओ होंति हिंसाओ ।।८०१।। जीव मरे या न मरे, जीवके परिणामोंके अधीन बन्ध होता है कहा है जीव मरे या न मरे हिंसायुक्त परिणामसे बन्ध होता है। निश्चयनयसे यह जीवके बन्धका सार है। जीव, उनके शरीर, शरीर ग्रहण करनेके स्थान जिसे योनि कहते हैं, उनका उत्पत्तिकाल, इन सबको जो जानता है और उनकी पीडाको दूर करना चाहता है तथा लोभ सन्मान आदिको अपेक्षा न करके मायाचार रहित तपमें लीन है वह अहिंसक है । कहा है ज्ञानी कर्मके क्षयके लिए उद्यत होता है, हिंसाके लिए उद्यत नहीं होता। वह मायाचारसे रहित होता है। अतः अप्रमत्त होनेसे वह अहिंसक है। शुभपरिणामसे युक्त आत्माके भी यदि अपने शरीरके निमित्तसे अन्य प्राणियोंके प्राणोंका घात हो जानेमात्रसे बन्ध हो तो किसी मुक्ति ही न हो। क्योंकि योगियोंके भी वायुकायिक जीवोंके घातके निमित्तसे बन्धका प्रसंग आता है वे भी श्वास लेते हैं और उससे वायुकायिक जीवोंका घात होता है । कहा है यदि बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धसे शुद्धपरिणामवाले जीवके भी बन्ध होता हो तो कोई अहिंसक हो ही नहीं सकता, क्योंकि शुद्धपरिणामीके श्वाससे वायुकायिक जीवोंका बध होता है । इसलिए निश्चयनयकी दृष्टिसे दूसरे प्राणियोंके प्राणोंके घातकी अपेक्षामात्रसे हिंसा नहीं होती ।।८००॥ हिंसा सम्बन्धी क्रियाओंके भेदोंका कथन करते हैं१. अज्झवसिदो य बद्धो-आ० मु०। २. रसकृत्तपः-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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