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________________ ६६९ विजयोदया टीका तेलोक्केण वि चित्तस्स णिव्वुदी पत्थि लोभघत्थस्स । संतुट्ठो हु अलोभो लभदि दरिदो वि णिव्वाणं ।।१३८६॥ 'तेलोक्केण वि' त्रैलोक्येनापि । 'चित्तस्स णिवुदो पत्थि' चित्तस्य निर्वृत्तिर्नास्ति । 'लोभघत्थस्स' लोभग्रस्तस्य । 'संतुट्ठो' सन्तुष्टः लब्धेन केनचिद्वस्तुना शरीरस्थितिहेतुभूतेन । 'अलोभो' द्रव्यगतमूरिहितः : 'लभदि' लभते । 'दरिदो वि' दरिद्रोऽपि । 'णिव्वाणं' निर्वाणं । सन्तोषायत्ता चित्तनिवृतिर्न द्रव्यायत्ता, सत्यपि द्रव्ये महति असन्तुष्टस्य हृदये महति दुःखासिका ॥१३८६॥ सव्वे वि गंथदोसा लोभकसायस्स हुति णादव्वा । लोमेण चेव मेहुण हिंसालियचोज्जमाचरदि ।।१३८७।। 'सम्वे वि गंथदोसा' सर्वेऽपि परिग्रहस्य ये दोषाः पूर्वमाख्यातास्ते सर्वेऽपि । 'लोभकसायस्स' लोभकषायवतः लोभः कषायोऽस्येति लोभकषाय इति गृहीतत्वात् । अथवा लोभसंज्ञितस्य कषायस्य दोषा इति सम्बन्धनीयं । 'लोभेण चेव' लोभेन चैव । मैथुनं, हिंसां, अलीक, चौर्य वाचरति । ततः सावधक्रियायाः सर्वस्या आदिमान् लोभः ॥१३८७।। रामस्स जामदग्गिस्स वच्छं चित्तण कत्तविरिओ वि । णिधणं पत्तो सकुलो ससाहणो लोभदोसेण ॥१३८८॥ 'रामस्स' रामस्य । 'जामदग्गिस्स' जामदग्न्यस्य । 'वज' व्रजं । 'धितूण' गृहीत्वा । 'कत्तविरिओ वि' कार्तवीर्योऽपि । 'णिषणं पत्तो' निधनं प्राप्तः 'सकुलो' सबन्धुवर्गः। 'ससाहणों' सबलः । 'लोभवोसेण' लोभ दोषेण ॥१३८८॥ लोभः । ण हि तं कुणिज्ज सत्तू अग्गी बग्धो व कण्हसप्पो वा । जं कुणइ महादोसं णिव्वुदिविग्धं कसायरिवू ॥१३८२।। स्पष्टा ॥१३८९॥ गा०-टी०-जो लोभसे ग्रस्त हैं उसके चित्तको तीनों लोक प्राप्त करके भी सन्तोष नहीं होता। और जो शरीरकी स्थितिमें कारण किसी भी वस्तुको पाकर सन्तुष्ट रहता है, जिरे. वस्तुमें ममत्वभाव नहीं है वह दरिद्र होते हुए भी सुख प्राप्त करता है। अतः चित्तकी शान्ति सन्तोषके अधीन है, द्रव्यके अधीन नहीं है। महान् द्रव्य होते हुए भी जो असन्तुष्ट है उस.. हृदयमें महान् दुःख रहता है ॥१३८६॥ ___गा०-पूर्व में परिग्रहके जो दोष कहे हैं वे सब दोष लोभकषायवालेके अथवा लोभ नामक कषायके जानना । लोभसे ही मनुष्य हिंसा, झूठ, चोरी और मैथुन करता है। अतः समस्त पापक्रियाओंका प्रथम कारण लोभ है ॥१३८७।। गा०--जमदग्निके पुत्र परशुरामकी गायोंको ग्रहणकर लेनेके कारण राजा कार्तवीर्य लोभदोषसे समस्त परिवार और सेनाके साथ मृत्युको प्राप्त हुआ। परशुरामने सबको मार डाला ||१३८८॥ विशेषार्थ-व. क. को. में कार्तवीर्यकी कथा १२२ नम्बर पर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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