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________________ ६६८ भगवती आराधना 'लोभेण' लोभेन हेतुना । 'आसाधत्तो' ममेदंभविष्यतीत्याशया ग्रस्तः । 'पावदि दोसे' प्राप्नोति दोषान् । बहुं कुणदि पावं पापं च बह करोत्याशावान् । 'णीए' वान्धवान् । 'अप्पाणं वा' आत्मानं वा । 'लोभेण' लोभेन । णरोग विगणेदि' न विगणयति । बान्धवानपि बाधते स्वशरीरश्रमं च नापेक्षते इति यावत् ॥१३८३॥ वस्तुनः सारासारतया न कश्चित् कर्मवन्धातिशयः येन केनचिद्रव्येण जनिता मूर्छा कर्मवन्धे निमित्तं आत्मा शुभपरिणामनिमित्तत्वादिति मत्वा सूरिराचष्टे लोभो तणे वि जादो जणेदि पावमिदरस्थ किं वच्चं । 'लगिदमउडादिसंगस्स वि हु ण पावं अलोहस्स ॥१३८४।। 'लोभो तणो वि जादो' लोभस्तृणेऽपि जातो । 'जणेदि पापं' जनयति पापं । 'इदरत्य' इतरत्र सारवति वस्तुनि । 'किं वच्चं' किं वाच्यं । 'लगिदमगुडादिसंगस्स वि' स्वशरीरविलग्नमुकुटादिपरिग्रहस्यापि न पापं भवति । 'अलोहस्स' लोभकषायवजितस्य मुकुटादेः सारद्रव्यस्याति प्रत्यासत्तिर्न बन्धायेति मन्यते ।।१३८४।। साकेदपुरे सीमंधरस्स पुत्तो मियद्धओ नाम । भद्दयमहिसनिमित्तं जवराय्या केवली जादो ॥१३८५॥ तृप्तिमापादयति द्रव्यमिति योऽत्रास्यानुरागः स नास्ति द्रव्यत इत्याचष्टे विशेषार्थ-इसकी कथा वृ० क० को० में १२० नम्बर पर है उसमें गाँवका नाम भरण दिया है ।।१३८२।। लोभके दोष कहते हैं गा०-लोभसे मनुष्य 'यह वस्तु मेरी होगी' इस आशासे ग्रस्त होकर बहुत दोष करता है; बहुत पाप करता है । लोभसे अपने कुटुम्बियोंकी और अपनी भी चिन्ता नहीं करता। उन्हें भी कष्ट देता है और अपने शरीरको भी कष्ट देता है ।।१३८३।। वस्तुके सारवान या असार होनेसे कर्मबन्धमें कोई विशेषता नहीं होती। जिससे किसी द्रव्यमें उत्पन्न हआ ममत्व भाव कर्मवंधमें निमित्त होता है क्योंकि वह ममत्व अशुभ परिणाममें निमित्त होता है, ऐसा मानकर आचार्य कहते हैं गा०-तृणसे भी हुआ लोभ पापको उत्पन्न करता है तब सारवान् वस्तुमें हुए लोभका तो कहना ही क्या है ? जो लोभकषायसे रहित है उसके शरीरपर मुकुट आदि परिग्रह होनेपर भी पाप नहीं होता। अर्थात् सारवान् द्रव्यका सम्बन्ध भी लोभके अभावमें बन्धका कारण नहीं है।।१३८४|| गा०-साकेत नगरीमें सीमन्धरका पुत्र मृगध्वज नामक था। वह भद्रक नामक भैसेके निमित्तसे केवली हुआ ॥१३८५।। __विशेषार्थ-वृ. क. को. में मृगध्वजकी कथा १२१ नम्बर पर है। 'द्रव्य तृप्ति देता है' इस भावनासे मनुष्यका द्रव्यमें जो अनुराग है वह नहीं होनेसे बन्ध नहीं होता, यह कहते हैं १. रइदम-अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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