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________________ ४६४ भगवती आराधना यदि नाम उपगतमिथ्यात्वोऽस्मि तथापि दुर्धरं चारित्रमनुष्ठितं मया तदस्मान्निस्तरणे समर्थमित्याशा न कर्तव्येति निदर्शयति कडुगम्मि अणिव्वलिदम्मि दुद्धिए कडुगमेव जह खीरं । होदि णिहिदं तु णिवलियम्मि य मधुरं सुगंधं च ।।७३२॥ 'कडुगम्मि दुद्धिए' कटुकालाब्वां । 'अणिम्वलिदम्मि' अशुद्धायां । "णिहिदं खीर' निक्षिप्तं क्षीरं । 'जहा कडुगमेव होदि' यया कटुकरसमेव भवति । एवकारेण माधुर्यव्यावृत्तिः क्रियते । 'णिन्वलिदम्मि य' शुद्धायामलाब्वां । 'णिहिदं' निक्षिप्तं क्षीरं 'जह मधुरं होदि सुगंधं च यथा मधुरं भवति सुरभि च ॥७३२॥ तह मिच्छत्तकड़गिदे जीवे तवणाणचरणविरियाणि । णासंति वंतमिच्छत्तम्मि य सफलाणि जायंति ॥७३३॥ 'तह' तथा 'मिच्छत्तकडुगिदे' मिथ्यात्वेन कटूकृते जीवे । 'तवणाणचरणविरियाणि' तपो, ज्ञानं, चारित्रं: वीर्यमित्येतानि 'णासंति' नश्यन्ति 'सम्यकरूपविनाशात । समीचीनं तपो, ज्ञानं, चरणं, वीर्यानिगहनं च मक्त्यपायो न तपःप्रभतिमात्रं । स च सम्यकश्रद्धाबलेनैव नान्यथा। 'वंतमिच्छम्मि' निरस्तमिथ्यात्वे जीवे । सफलानि फलसमन्वितानि तपःप्रभृतीनि । 'जायन्ति' जायन्ते। [किर तपसः फलं? अभ्युदयसुखं, निःश्रेयससुखं वा। मिःछत्तस्स य वमणं इत्येतद्व्याख्यातं । मिच्छत्तं ] ॥७३३॥ __सम्मत्तं भावणा इत्येतद्वयाचष्टे मा कासि तं पमादं सम्मत्ते सव्वदुक्खणासयरे । सम्मत्तं खु पदिट्ठा णाणचरणवीरियतवाणं ।।७३४॥ गा०-संघश्री नामक राजमन्त्रीकी आँखें तीव्र मिथ्यात्वके कारण फूट गई और वह मर कर भी दीर्घ संसारी हुआ ॥७३१॥ शायद क्षपक विचारे कि यदि मैं मिथ्यादृष्टि हूँ तब भी मैंने दुर्धर चारित्रका पालन किया है अतः मैं संसार समुद्रको पार करने में समर्थ हूँ ? आचार्य कहते हैं कि ऐसी आशा नहीं करना गा०-जैसे अशुद्ध कडुवी तूम्बीमें रखा दूध कटुक ही होता है और शुद्ध तूम्बीमें रखा दूध मीठा तथा सुगन्धित होता है ॥७३२॥ गा०-वैसे ही मिथ्यात्वसे दूषित जीवमें तप, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, ये सब नष्ट हो जाते हैं क्योंकि सम्यक् रूप नहीं होते । समीचीन तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य मुक्तिके उपाय हैं, केवल तप आदि मात्र मुक्तिका उपाय नहीं है। और समीचीन तप आदि श्रद्धाके बलसे ही होते हैं, श्रद्धाके अभावमें नहीं होते। अतः मिथ्यात्वको दूर कर देने वाले जीवमें तप आदि सफल होते हैं। तपका फल सांसारिक सुख अथवा मोक्षका सुख है। इस प्रकार मिथ्यात्वके वमनका कथन किया । ७३३।। अब सम्यक्त्यकी भावनाका कथन करते हैं १. सम्यक्स्वरूपविनाशात्-मूलारा० मु०। २. [ ] एतदन्तर्गतः पाठः 'अ' प्रती नास्ति । ३, किं त्येतद्व्याचष्टे-अ० ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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