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विजयोदया टीका गाढप्पहारसंताविदा वि सूरा रणे अरिसमक्खं ।
ण मुहं मंजंति सयं मरंति 'भिउडीमुहा चेव ।।१५२१।। 'गाढप्पहारसंताविदा वि' गाढप्रहारसंतापिता अपि शूरा 'रणे' युद्धे । 'सगं मुहं अरिसमक्खं ण भंजंति' स्वमुखभङ्गं अरीणां पुरतो न कुर्वन्ति । 'मरंति' म्रियते । भिगुडीए सह चेव' भ्रकुटया सह चैव ॥१५२१॥
सुटठु वि आवइपत्ता ण कायरत्तं करिति सप्पुरिसा ।
कत्तो पुण दीणतं किविणत्तं वा वि काहिंति ।।१५२२।। 'सुठ्ठ वि आवइपत्ता' निरन्तरमापदं प्राप्ता अपि । 'सप्पुरिसा ण कायरत्तं करंति' सत्पुरुषा न कातरतां कुर्वन्ति । 'कत्तो पुण काहिति' कुतः पुनः करिष्यन्ति । 'दीणतं किविणत चावि' दीनतां कृपणतां च ॥१५२२॥
केई अग्गिमदिगदा समंतओ अग्गिणा वि उज्झंता ।
जलमज्झगदा व णरा अत्थंति अचंदणा चेव ।।१५२३॥ केई अत्थंति अचेदणा चेव' केचिदासते अचेतना इव । 'अग्गिमदिगदा' अग्नि प्रविष्टाः 'समंतदो अग्गिणा वि डझंता' समन्तात् अग्निना दह्यमाना अपि । 'जलमज्झगदा व नरा इव ॥१५२३।।
तत्थ वि साहुक्कारं सगअंगुलिचालणेण कुव्वंति ।
केई करंति धीरा उक्किटिं अग्गिमज्झम्मि ॥१५२४।। 'तत्थ वि' तत्राप्यग्निमध्ये । 'साहुक्कारं सगअंगुलिचालणेण कुठवंति' साधुकारं स्वाङ्गलिचालनया कुर्वते । 'केई अग्गिमज्झगदा धीरा' केचिदग्निमध्यगता धीराः । 'उकिट्टि करंति' उत्कृष्ट उत्क्रोशनं कुर्वन्ति ॥१५२४॥
__ गा०-युद्ध में शूरवीर पुरुष जोरदार प्रहारसे पीड़ित होनेपर भी शत्रुके सामनेसे अपना मुख नहीं मोड़ते और मुखपर भौं टेढ़ी किये हुए ही मरते हैं ॥१५२१।।
गा०-उसी प्रकार सत्पुरुष अत्यन्त आपत्ति आनेपर भी कातर नहीं होते। तब वे दीनता या कायरता क्यों दिखायेंगे ? ॥१५२२॥ - गा०-कितने ही सत्पुरुष आगमें प्रवेश करके सब ओरसे आगसे जलनेपर भी जलके मध्यमें प्रविष्ट हुए मनुष्यकी तरह अथवा अचेतनकी तरह रहते हैं ।।१५२३।।
गा०-तथा आगके मध्यमें भी रहते हुए अपने अगुलि संचालनके द्वारा साधुकार करते हैं कि कितना अच्छा हुआ कि मेरे अशुभ कर्म क्षय हुए। कितने ही धीर वीर पुरुष आगके मध्यमें रहकर अपना आनन्द प्रकट करते हैं ॥१५२४॥
१. भिउडीए सह-मु० । २. नरा इव अचेतना इव-आ० मु० ।
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