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________________ विजयोदया टीका ४२७ धानं । सह चित्तेनात्मना वर्तते इति सचित्तं जीवशरीरत्वेनावस्थितं पुद्गलद्रव्यं । न विद्यते चित्तं आत्मा यस्मिन्पुद्गले तदचित्तं । मिश्रं नाम सचित्ताचित्तपुद्गलसंहतिः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः जीवपरिगृहीताः सचित्तशब्देनोच्यन्ते। अचित्तं जीवन परित्यक्तं शरीरं 'तयोरुपादाय क्षेत्रादिप्रतिसेवना च योज्या। 'जदि णो जंपदि' न कथयेदि । 'जहाकम' यथाक्रमं । 'सन्वें' सर्वान् स्थूलान्सूक्ष्मांश्चातिचारान् । 'ण करंति' न कुर्वन्ति । 'तदो' ततः । तस्स सोधि' तस्य शुद्धि । 'आगमववहारिणो' आगमानुसारेण व्यवहरन्तः । एत्थ दु उज्जुगभावा ववहरिदव्वा भवंति ते पुरिसा।। संका परिहरिदव्या सेसे पट्टहि जहिं विसुद्धा ॥ [ ] इति वचनात् सर्वमतिचार निवेदयत एव ऋजुता, तस्यैव प्रायश्चित्तदानं ॥६१९।। पडिसेवणादिचारे जदि "आजपदि जहाकम सव्वे । कुव्वंति तहो सोधिं आगमववहारिणों तस्स ॥६२०।। स्पष्टा गाथा ।।६२०॥ यतिना निर्दोषायामालोचनायां कृतायां गणिना कि कर्तव्यमित्याशङ्गिते तद्वयापारं कथयति सम्म खवएणालोचिदम्मि छेदसुदजाणगो गणी सो। तो आगममीमंसं करेदि सुत्ते य अत्थे य ॥६२१।। कथञ्चित् अभिन्न होता है अथवा आत्मामें रहता है इसलिए उसे चित्त शब्दसे कहते हैं । जो चित्त अर्थात् आत्माके साथ रहता है वह सचित्त है। अर्थात् जीवके शरीररूपसे स्थित पुद्गलद्रव्य सचित्त है । और जिस पुद्गलमें चित्त अर्थात् आत्मा नहीं है वह अचित्त है। सचित्त और अचित्त पुद्गलोंका समूह मिश्र है। जीवके द्वारा ग्रहण किये गये अर्थात् जिनमें जीव वर्तमान है उन पृथिवी, जल, आग, वायु और वनस्पतिको सचित्त कहते हैं । जीवके द्वारा त्यागे हुए शरीरको अचित्त कहते हैं। इन सचित्त अचित्तको लेकर क्षेत्र प्रतिसेवना, काल प्रतिसेवना और भाव प्रतिसेवना लगा लेना चाहिए । इन प्रतिसेवनाके निमित्तसे हुए सव सूक्ष्म और स्थूल दोषोंको यथाक्रम यदि नहीं कहता तो आगमके अनुसार व्यवहार करने वाले आचार्य उसकी शुद्धि नहीं करते । आगममें कहा है ___'जो पुरुष सरल भावसे अपने दोष कहते हैं वे प्रायश्चित्त द्वारा विशुद्धि करने योग्य होते हैं । और जिनके विषयमें शंका हो वे प्रायश्चित्त देनेके योग्य नहीं हैं।' अतः सब अतिचारोंको कहने वालेके ही सरलता होती है। उसीको प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६१९।। . गा०-प्रतिसेवना सम्बन्धी सब अतिचारोंको क्रमानुसार यदि कहता है तो आगमके अनुसार व्यवहार करने वाले आचार्य उसकी शुद्धि करते हैं ।।६२०॥ यतिके निर्दोष आलोचना करने पर आचार्यको क्या करना चाहिए ? ऐसी आशंका करने पर उसे कहते हैं १. तयोरुपादानं क्षेत्रादि प्रतिसेवना योज्या-आ० मु० । २. जदि णाकुंटिदि-अ० । ३. पादहि अ० । ४. आउंटेदि अ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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