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________________ ४२८ भगवती आराधना 'खवगेण सम्म आलोचिदम्मि' क्षपकेन सम्यगालोचिते । 'छेदसुदजाणगो गणी सो' छेदसूत्रज्ञः सूरिः सः । 'तो' पश्चात । 'आगममीमंसं' आगमविचारं । 'करेदि' करोति । कथं ? 'सुत्ते य अत्थे य' सूत्रे च अर्थे च । इदं सूत्रं अस्य चायमर्थ इति अपराधस्यैवंभूतस्य इदं प्रायश्चित्तमनेन सूत्रेण चेदं निर्दिष्टं इति प्राग्निरूपयति ॥६२१॥ परिणामश्च निरूपयितव्यस्तदीयः किमर्थमित्यत आह पडिसेवादो हाणी वड्डी वा होइ पावकम्मस्स । परिणामेण दु जीवस्स तत्थ तिव्वा व मंदा वा ॥६२२।। 'पडिसेवादो जातस्स पावकम्मस परिणामेण हाणी वड्ढी वा होदि' । कीदृशी ? तिव्वा वा मन्दा वा इति पदघटना । प्रतिसेवनातो जातस्य पापकर्मणः परिणामेन पाश्चात्येन करणेन हानि वृद्धि भवति । तीवा हानिस्तीवा वृद्धिः । मन्दा वा हानिर्मन्दा वा वृद्धिः ॥६२२।। तदुभयव्याख्यानाय गाथाद्वयमुत्तरम् सावज्जसंकिलिट्ठो गालेइ गुणे णवं च आदियदि । पुव्यकदं व दढं सो दुग्गदिभवबंधणं कुणदि ॥६२३।। 'सावज्जसंकिलिट्ठो' सावद्यसंक्लेशो द्विप्रकारः । सह अवद्येन पापेन वर्तत इति सावद्य एकः । अन्यस्तु संक्लेशश्चित्तबाधा । न तु सावद्यः । ज्ञानं विमलं कि मम न जायते. सम्पूर्ण चारित्रं शरीरं वा किमर्थमिदमति गा०-क्षपकके द्वारा सम्यक् आलोचना करने पर छेद सूत्र अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता आचार्य सूत्र और उसके अर्थको लेकर आगमका विचार करता है कि यह सूत्र है और इसका यह अर्थ है । इस प्रकारके अपराधका यह प्रायश्चित्त इस सूत्रमें कहा है, ऐसा पहले विचार करता है ॥६२१॥ दोषके अनुसार प्रायश्चित्तका विचार करने वाले आचार्यको अतिचारके समय तथा उसके बाद होने वाले क्षपकके परिणामोंका भी विचार करना चाहिए क्योंकि गा०-प्रतिसेवना अर्थात् असंयम आदिका सेवन करनेसे उत्पन्न हुए पापकर्मको पीछे हुए शुभ या अशुभ परिणामोंसे तीव्र हानि अथवा तीव्र वृद्धि, मन्द हानि अथवा मन्द वृद्धि होती है । अर्थात् असंयम सेवन करते समय जैसे तोव अशुभ परिणामसे तीव्र पाप बन्ध और मन्द अशुभ परिणामसे मन्द पापबन्ध हुआ था वैसे ही आलोचनाके पश्चात् तीव्र शुभ परिणाम होनेसे पापकी तीव्र हानि और मन्द शुभ परिणाम होनेसें पापको मन्द हानि होती है इसका विचार भी आचार्य करते हैं ।।६२२।। इन दोनों का व्याख्यान आगे दो गाथाओंसे करते हैं गा०-टी०-सावद्य संक्लेश दो प्रकारका है। एक वह जो अवद्य अर्थात् पापके साथ होता है । दूसरा संक्लेश है चित्तकी बाधा । वह सावध रूप नहीं होता। जैसे मेरा ज्ञान निर्मल क्यों १. भयवधणं-मूलारा०। २. सावद्यसंक्लेशसहितः क्लेशो-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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