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________________ विजयोदया टोका हिवमवी होहि' सुष्टु समाहितमतिर्भव । कथं ? 'णिरंतरं ज्झाणसज्झाए' निरन्तरप्रवृत्तध्यानस्वाध्याये । न हि ध्यानस्वाध्यायावन्तरेण गुप्तयोऽवतिष्ठन्त इति भावः ॥११८४॥ समितिव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धस्तत्रैर्यासमितिनिरूपणायोत्तरा गाथा मग्गुज्जोवपओगालंबणसुद्धीहिं इरियदो मुणिणो । सुनाणुवीचि भणिदा इरियासमिदी पवयणम्मि ॥११८५।। 'मग्गुज्जोवुपओगालंबणसुद्धीहिं' मार्गशुद्धिः, उद्योतशुद्धिरुपयोगशुद्धिश्चालम्बनशुद्धिरिति चतस्रः शुद्धयस्ताभिः करणभूताभिः । 'इरियदो' गच्छतः । 'मृणिणो' मुनेः । 'सुत्ताणुवीचि' सूत्रानुसारेण । 'भणिदा' कथिता । 'इरियासमिदी' ईर्यासमितिः । 'पवयणम्मि' प्रवचने । तत्र मार्गस्य शुद्धिर्नाम अप्रचुरपिपीलिकादित्रसता, बीजाङ्करतृणहरितपलाशकर्दमादिरहितता । स्फुटतरता व्यापिता च उद्योतशुद्धिः । निशाकरनक्षत्रादीनामस्फुटः प्रकाशः, अव्यापी प्रदीपादिप्रकाशः । 'पादोद्धारनिक्षेपदेशजीवपरिहरणावहितचेतस्ता उपयोगशुद्धिः । गुरुतीर्थचैत्ययतिवन्दनादिकमपूर्वशास्त्रार्थ ग्रहणं, संयतप्रायोग्यक्षेत्रमार्गणं, वैयावृत्यकरणं, अनियतावासस्वास्थ्यासम्पादने श्रमपराजयं, नानादेशभाषाशिक्षणं, विनेयजनप्रतिबोधनं चेति प्रयोजनापेक्षया आलम्बनाशुद्धिः । किं तत् सूत्रानुसारिगमनं, अद्रुतं, नातिविलम्बितं, पुरो युगमात्रदर्शनप्रवृत्तिः, अविकृष्टचरणन्यासं, भयविस्मयावन्तरेणासलील मनत्युत्क्षेपं, परिहृतलङ्घनधावनं प्रविलम्बितभुजं, निर्विकारं, अचपलमसंभ्रान्तमनूर्ध्वतिर्यक्प्रेक्षणं, हस्तमात्रपरिहृततरुणतृणपल्लवं, अकृतपशुपक्षिमृगोद्व जनं, विरुद्धयोनिसंक्रमणजातबाधाव्युदासाय आगे समितिका व्याख्यान करते हैं। प्रथम ईर्यासमितिका कथन करते हैं गा०-टी०-मार्गशुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोगशुद्धि और आलम्बन शुद्धि, इन चार शुद्धियोंके द्वारा सूत्रके अनुसार गमन करते हुए मुनिके प्रवचनमें ईर्यासमिति कही है। मार्गमें चींटी आदि त्रस जीवोंकी अधिकताका न होना तथा बीज, अंकुर, तृण, हरे पत्ते और कीचड़ आदिका न होना मार्गशुद्धि है । सूर्यके प्रकाशका स्पष्ट फैलाव और उसकी व्यापकता उद्योतशुद्धि है। चन्द्रमा नक्षत्र आदिका प्रकाश अस्पष्ट होता है और दीपक आदिका प्रकाश व्यापक नहीं होता। पैर उठाने और रखनेके देशमें जीवोंकी रक्षामें चित्तकी सावधानता उपयोग शुद्धि है। गुरु, तीर्थ, चैत्य और यतिकी वन्दनाके लिए गमन करना आदि किसीके पास शास्त्रका अपूर्व अर्थ या अपूर्व शास्त्रके अर्थका ग्रहण करनेके लिए गमन करना, मुनियोंके योग्य क्षेत्रकी खोजके लिए गमन करना, वैयावृत्य करनेके उद्देशसे गमन करना, अनियत आवासके उद्देशसे गमन करना. स्वास्थ्य लाभके लिए गमन करना. श्रमपर विजय पानेके लिए गमन करना. नाना देशोंकी भाषा सोखनेके लिए गमन करना, शिष्य समुदायका प्रतिबोधन करनेके लिए गमन करना, इत्यादि प्रयोजनोंको अपेक्षा गमन करना आलम्बन शुद्धि है। सूत्रानुसार गमन इस प्रकार है-न बहुत जल्दी और न बहुत विलम्बसे सामने युगमात्र भूमि देखकर चलना, पादनिक्षेप अधिक दूर न करना, भय और आश्चर्यके विना गमन करना. लीलापूर्वक गमन न करना, पैर अधिक ऊँचा न उठाते हुए गमन करना, लांघना दौड़ना आदि नहीं, दोनों भुजा लटकाकर गमन करना, विकार रहित, चपलता रहित, ऊपर तिर्यक् अवलोकन १. पादोपरिवि-अ०आ० । २. मनक्षेप-अ०। मनन्यत्रक्षेपं आ० । मनत्युत्क्षपं-मुलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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