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________________ ५९८ भगवती आराधना गुप्तिरित्येतदेव वाच्यं इति चेत् न कार्याविषयं ममेदंभावरहितत्वमात्रमपेक्ष्य कायोत्सर्गस्य प्रवृत्तेः धावनगमनलङ्घनादिक्रियासु प्रवृत्तस्यापि कायगुप्तिः स्यान्न चेष्यते । अथ कार्यक्रियानिवृत्तिरित्येतावदुच्यते मूर्च्छापरिगतस्यापि अपरिस्पन्दता विद्यते इति कायगुप्तिः स्यात् । तत उभयोपादानं व्यभिचारनिवृत्तये । कर्मादाननिमित्तसकलकायक्रियानिवृत्तिः कायगोचरममतात्यागपरा वा कायगुप्तिरिति सूत्रार्थ: । 'हिंसादिणियत्ती वा सरीरगुत्ती हवदि दिट्ठा' हिंसादिनिवृत्तीर्वा शरीरगुप्तिरिति दृष्टा जिनागमे, प्राणिप्राणवियोजनं, अदत्तादानं, मिथुनकर्म शरीरेण परिग्रहादानमित्यादिका या विशिष्टा क्रिया सेह कायशब्देनोच्यते । कायिकोपकृतेर्गुप्तिर्व्यावृत्तिः कायगुप्तिरिति व्याख्यातं सूरिणा ॥११८२ । छेत्तस्स वदी णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो । तह पावस्स गिरोहे ताओ गुत्तीओ साहुस्स ||११८३॥ 'छेत्तस्स वदी' क्षेत्रस्य वृति: 'नगरस्य खातिका अथवा पागारों अथवा प्राकारो भवति नगरस्य । 'तघा पावस्स णिरोधी' पापस्य निरोध उपाय: । 'ताओ गुत्तीओ' ता गुप्तयः साधोः ।। ११८३ । तम्हा तिविहेवि तुमं मणवचिकायप्पओगजोगम्मि | होहि सुसमाहिदमदी निरंतरं ज्झाणसज्झाए ॥। ११८४ ॥ 'तम्हा तिविधेण मणवचिकायपओगजोगम्मि' मनोवाक्कायविषये प्रकृष्टे योगे । 'तुमं' त्वं । 'सुसमा - शङ्का - यदि कायोत्सर्गसे निश्चलता कही जाती है तो 'काय क्रियानिवृत्ति कायगुप्ति है' ऐसा नहीं कहना चाहिए । किन्तु कायोत्सर्ग कायगुप्ति है ऐसा ही कहना चाहिए । समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि काय में 'यह मेरा है' इस भावके न होने मात्रकी अपेक्षासे कायोत्सर्गं शब्दकी प्रवृत्ति होती है । किन्तु यदि कायगुप्ति यही है तो दौड़ना, जाना, लांघना आदि क्रियाओंको करते हुए भी काय गुप्ति हो सकेगी। किन्तु ऐसा नहीं माना जाता । और 'कार्यक्रियाकी निवृत्ति कायगुप्ति है' इतना ही कहा जाता है तो मूर्छित अवस्था में भी काय क्रियाकी निवृत्ति होनेसे कायगुप्तिका प्रसंग आता है । इसलिए व्यभिचार दोषकी निवृत्तिके लिए दोनोंका ग्रहण गाथामें किया है । अतः कर्मके ग्रहण में निमित्त समस्त कायकी क्रियाओंसे निवृत्ति और कार्याविषयक ममत्वका त्याग काय गुप्ति है, यह गाथासूत्रका अर्थ है | अथवा आगम में हिंसा आदिसे निवृत्तिको कायगुप्ति कहा है । यहाँ काय शब्दसे प्राणियोंके प्राणों का घात, विना दी हुई वस्तुका ग्रहण, शरीरसे मैथुन कर्म और परिग्रहका ग्रहण इत्यादि विशिष्ट क्रिया कही गई है । कायिक क्रियाओंसे गुप्ति अर्थात् व्यावृत्ति काय गुप्ति है ऐसा आचार्यने व्याख्यान किया है ।। ११८२ ।। गा०—जैसे खेतकी बाड़ और नगरकी खाई अथवा चारदिवारी होती है वैसे ही पापको रोकने में साधुकी गुप्तियाँ होती हैं ||११८३ || गा० – इसलिए हे क्षपक ! तुम निरन्तर ध्यान और स्वाध्याय में लगे रहकर मन वचन काय विषयक तीन प्रकारके प्रकृष्ट योगमें सावधान रहो। क्योंकि ध्यान और स्वाध्यायके विना तयाँ नहीं ठहरतीं ॥११८४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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