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________________ भगवती आराधना गृहितवलवीर्या, आत्मानं मनसा तुलयन्ति । किमथालन्दविधिरारभणीयोऽथवा प्रायोपगमनविधिरिति । परिहारस्यासमर्था अथालन्दविधिमुपगन्तुकामास्त्रयः, पञ्च, सप्त, नव वा ज्ञानदर्शनसंपन्नास्तीवसंवेगमापन्नाः, स्थविरमूलनिवासिनः, अवधृतात्मसामा विदितायुःस्थितयः स्थविरं विज्ञापयन्ति-भगवन् ! किमिच्छामोऽयालन्दकसंयमं प्रतिपत्तुमिति । तच्छ् त्वा स्थविरो वारयति धृत्या शरीरेण च दुर्बलान्परिणामातिशयविरहितांश्च कांश्चिदनुजानाति । समग्रगुणास्ते निसृष्टाः स्यविरेण प्रशस्तेऽवकाशे स्थिताः कृतलोचाः, गुरूणामालोचनां कृत्वा कृतव्रतारोपणा अचिरोदगते आदित्ये कल्पस्थितमेकं गणस्यालोचनां श्रोतु शुद्धि चैव कतू समद्यतं स्थापयन्ति । स एव प्रमाणं गणस्य । आत्मनः सहाया यावन्तो गणान्निर्गतास्तावन्त एव तत्स्थाने स्थापयितव्या गणे। आचारो निरूप्यते-अथालन्दसंयतानां लिङ्गं औत्सर्गिकं, देहस्योपकारार्थ आहारं वसति च गृह्णन्ति, शेषं सकलं त्यजन्ति । तुणपीठकटफलकादिकं उपधिं च न गृह्णन्ति । प्राणिसंयमपरिपालनार्थं जिनप्रतिरूपतासंपादनार्थ च गृहीतप्रतिलेखना ग्रामान्तरगमने विहारभूमिगमने, भिक्षाचर्यायां, निषद्यायां च अप्रतिलेखना एव व्युत्सृष्ट शरीरसंस्काराः परीषहान्सहन्ते नो वा धृतिबलहीनाः । अस्ति च मनोबलं संयममाचरितु इति मत्वा त्रयः पञ्च वा सह प्रवर्तन्ते । रोगेणाभिघातेन वा जाताया वेदनायाः प्रतिक्रियया वा यदा तपसातिश्रान्तास्तदा योग्य कार्यको कर चुकने वाले, परीषह और उपसर्गको जीतनेमें समर्थ तथा अपने बल और वीर्यनहीं छिपानेवाले होते हैं, वे अपनी तुलना मनमें करते हैं कि क्या अथालन्दविधि प्रारम्भ करें या प्रायोपगमन विधि ? जो परिहार विशुद्धिको धारण करने में असमर्थ हैं और अथालन्दविधिको स्वीकार करना चाहते हैं ऐसे पाँच, सात या नौ मुनि, जो ज्ञान और दर्शनसे सम्पन्न हैं, तीव्र वैराग्यसे सम्पन्न हैं, आचार्यके पादमूलमें रहते हैं, जिन्होंने अपनी सामर्थ्यका निर्णय कर लिया है और जिन्हें अपनी आयुकी स्थिति ज्ञात है वे आचार्यसे निवेदन करते हैं.-भगवन् ! हम अथालन्दक संयमको धारण करना चाहते हैं। यह सुनकर आचार्य जो धैर्य और शरीरसे दुर्बल हैं, जिनके परिणाम उन्नत नहीं हैं, उन्हें रोक देते हैं और कुछको अनुमति देते हैं । वे सम्पूर्ण गुणशाली गुरुके द्वारा छोड़ दिये जाने पर प्रशस्त स्थानमें लोच करते हैं। और गुरुके सन्मुख आलोचना करके व्रत धारण करते हैं। सूर्यका उदय होते ही कल्पस्थित मुनियोंमें से एकको जो गणको आलोचना सुनते और दोषोंकी शुद्धि करनेके लिए तत्पर होता है, स्थापित करते हैं । वही गणके लिए प्रमाण होता है अपने सहायक जितने मुनि गणसे निकले हैं, गणमें उनके स्थानमें उतने ही मुनि स्थापित करना चाहिए। अब अथालन्दकोंके आचारका निरूपण करते हैं-अथालन्दक मुनियोंके औत्सर्गिक लिंग (नग्नता) होता है । शरीरके उपकारके लिए आहार और वसति स्वीकार करते हैं । शेष सब छोड़ देते हैं। तृणोंका आसन, लकड़ीका तख्त आदि परिग्रह स्वीकार नहीं करते । प्राणि संयमको पालनेके लिए और जिनदेवका प्रतिरूप रखनेके लिए पीछी रखते हैं। अन्य ग्रामको जाने पर, विहार भूमिमें जाने पर, भिक्षाचर्या में और बैठते समय प्रतिलेखना नहीं करते। शरीरका संस्कार नहीं करते, परीषहोंको सहते हैं और धैर्यबलसे हीन नहीं होते। संयमका आचरण करनेके लिए हममें मनोबल है ऐसा मानकर तीन या पाँच मुनि एक साथ रहते हैं। रोगसे या चोट आदिसे १. राधनोयो-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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