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भगवती आराधनां किंपाकफलोपसेवा उपमानं, उपमेयं आलोचना, दुःखविपाकता साधारणो धर्मः ॥५६८।।
किमिरागकंबलस्स व सोधी जदुरागवत्थसोधीव ।
अवि सा हवेज्ज किहइ ण इमा सल्लुद्धरणसोधी ।।५६९।। "किमिरागकंबलस्स व' कृमिभुक्ताहारवर्णतन्तुभिरूतः कंवलः कृमिरागकंबलः । 'तस्स सोधी' विशुद्धिरिव पीतनीलरक्तादीनां अन्यतमवर्णस्य शुक्लतेव । 'जदुरागवच्छसोधीव' जतुवर्णवस्त्रशुद्धिरिव वा यथासौ क्लेशेन प्रवर्तमानापि न भवत्येवमियमपीति सधर्मता । 'अहवा' अथ वा । 'अपि सा' कृमिरागकम्बलशुद्धिर्जन्तुरागवस्त्रशुद्धिर्वा 'हवेज्ज' भवेत् । "इमा इयं सल्लुद्धरणसोधी मायाशल्योद्धरणशुद्धिर्न भवत्येव ॥५६९।। इति अणुकंपिय। द्वितीयमालोचनादोषमाचष्टे
धीरपुरिसचिण्णाई पवददि अदिधम्मिओ व सव्वाइं ।
धण्णा ते भगवंता कुव्वंति तवं विकटुं जे ॥५७०।। धीरपुरिसचीण्णाई' धीरैः पुरुराचरितानि । 'पवदति' प्रवदति । 'अदिधम्मिगो व' अतीव धार्मिक इव । 'सव्वाई' सर्वाणि । 'धण्णा' धन्याः पुण्यवन्तः । 'ते भगवंता' माहात्म्यवन्तः। 'जे' ये । 'कुव्वंति' कुर्वन्ति । 'तवं' तपः । “विकट्ठ' उत्कृष्टं इति वदति ॥५७०॥
भी उसीके समान है। यहाँ किंपाकफलका सेवन उपमान है। आलोचना उपमेय है। परिणाममें दुःख होना दोनोंका साधारण धर्म है ।।५६८॥
गा०-टी०-कीड़ोंके द्वारा खाये गये आहारके रंगमें रंगे धागोंसे बने कम्बलको कृमिराग कम्बल कहते हैं। उसकी विशुद्धिकी तरह, जैसे पीला-नीला-लाल आदिमेंसे कोई एकवर्ण सफेद नहीं होता उसकी तरह कृमिराग कम्वलकी विशुद्धि नहीं होती । अथवा लाखके रंगमें रंगे वस्त्रकी शुद्धि बहुत प्रयत्न करनेपर भी नहीं होती। उसी तरह मायाशल्ययुक्त आलोचनासे भी शुद्धि नहीं होती। अथवा कृमिराग कम्बलकी शुद्धि और लाखके रंगमें रंगे वस्त्रकी शुद्धि हो भी जावे किन्तु यह मायाशल्यके निकलनेरूप शुद्धि नहीं होती ॥५६९||
विशेषार्थ-पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें कृमिराग कम्बलकी कई व्याख्या दी हैं एक तो उक्त संस्कृत टीका विजयोदया की है। दूसरी टिप्पन की है-कृमिके द्वारा त्यागे गये रक्त आहारसे रंजित तन्तुओंसे बना कम्बल कृमिरागकम्बल है। तीसरी व्याख्या प्राकृतटीका की है। उसमें कहा है-उत्तरापथमें चर्मरंग (?) म्लेच्छ देशमें म्लेच्छ जोकोंके द्वारा मनुष्यका रक्त लेकर वरतनोंमें रखते हैं। उस रक्तमें कुछ दिनोंमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं तब उससे धागोंको रंगकर कम्बल बुनते हैं। उसे कृमिरागकम्बल कहते हैं। वह अत्यन्त लाल रंगका होता है । आगमें जलानेपर भी वह कृमिराग नहीं जाता।
दूसरे आलोचना दोषको कहते हैं
गा०—आलोचना करनेवाला मुनि अत्यन्त धार्मिककी तरह कहता है-धीर पुरुषोंके द्वारा आचरित उत्कृष्ट तपको जो करते हैं वे धन्य हैं, माहात्म्यशाली हैं ॥५७०।।
१. ण माया स-आ० ।
२. इण इयं ।
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