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________________ ८७४ भगवती आराधना णच्चा संवट्टिज्जंतमाउगं सिग्यमेव तो भिक्खू । गणियादीणं सण्णिहिदाणं आलोचए सम्मं ॥२०१४।। ‘णच्चा संवट्टिज्जतं आउगं' ज्ञात्वा संह्रियमाणमायुः शीघ्रमेव ततो भिक्षुराचार्यादीनां सन्निहितानामालोचनां सम्यक् कुर्यात् रत्नत्रयाराधनायां परिणतः । व्युत्सृजेत् वसति, संस्तरमाहारमुपधिं शरीरं परिचारकान्, बलवीर्य हानेः परगणगमनासमर्थाः 'निरुद्धाः प्रदेशाः प्रकर्पण निरुद्धतरक इत्युच्यते ।।२०१४।। एवं णिरुद्धदरयं विदियं अणिहारिमं अवीचारं । सो चेव जधाजोगं पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स ॥२०१५॥ स्पष्टार्थगाथा । निरुद्धरं ॥२०१५।। वालादिएहिं जइया अक्खित्ता होज्ज भिक्खुणो वाया । तइया परमणिरुद्धं भणिदं मरणं अवीचारं ॥२०१६॥ 'वालादिएहि' व्यालादिभिः पूर्वोक्तः यदोपहृतस्य वाग्विनष्टा तदा परिमनिरुद्धमरणं । वाग्निरोधोऽत्र परमशब्देनोच्यते ॥२०१६॥ णच्चा संवट्टिज्जंतमाउगं सिग्यमेव तो भिक्खू । अरहंतसिद्धसाहूण अंतिगं सिग्घमालोचे ॥२०१७।। 'णच्चा संविट्टिज्जतं आउगं' ज्ञात्वोपसंव्हियमाणमायुः अर्हतां सिद्धानां साधूनां चान्तिके शीघ्र मालोचनाः कुर्यात् ।।२०१७।। गा०-साधु, अपनी आयुको शीघ्र ही समाप्त होती हुई जानकर जो निकटवर्ती आचार्य आदि हों, उनके सन्मुख अपने दोषोंकी सम्पपसे आलोचना करे। तथा रत्नत्रयकी आराधनामें तत्पर होता हुआ वसति, संस्तर, आहार, उपधि, शरीर और परिचारकोंसे ममत्वका त्याग कर दे। बल और वीर्यके क्षीण होनेसे जिनके प्रदेश अन्य संघमें जानेमें अत्यन्त असमर्थ होते हैं उन्हें निरुद्धतरक कहते हैं ।।२०१४|| गा०-इस प्रकार विहार रहित अत्यन्त निरोध रूप अविचार भक्तप्रत्याख्यानके दूसरे भेद निरुद्धतरका कथन किया। पूर्व में भक्त प्रत्याख्यानकी जो विधि कही है वही विधि यथायोग्य यहाँ भी जानना ॥२०१५|| गा०-जब पूर्वोक्त सर्प आदिसे डसे जानेके का.ण क्षपककी वाणी नष्ट हो जाती है, वह .बोल नहीं सकता तब उसके परम निरुद्ध नामक अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है । यहाँ परम शब्दसे वाणीका रुकना कहा है ॥२०१६॥ गा०-तब वह साधु शीघ्र ही अपनी आयुको समाप्त होती हुई जान अर्हन्तों, सिद्धों और साधुजनोंके पासमें तत्काल आलोचना करे ॥२०१७॥ १. द्धा प्रदेशं प्रकर्षण निरुद्ध इति निरुद्धतरक इत्युच्यते -अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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