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________________ २१८ भगवती आराधना ___ "सल्लेहणं' सल्लेखनां । 'करतो' कुर्वन् । 'सव्वं सुहसीलयं' सर्वां सुखभावनां आसनशयनभोजनादिविषयां । 'पयहिदूण' प्रकर्षेण त्यक्त्वा योगत्रयेणेति यावत् । 'भावसिदिमारुहिता' श्रद्धानादिपरिणामसेवां प्रतिपद्य । 'विरहेज्ज' प्रवर्तेत । 'सरीरणिविण्णो' शरीरनिःस्पृहः। किमनेन शरीरेण, सुलभेनासारण, अशुचिना, कृतघ्नेन, भारेण रोगाणामाकरेण, जरामरणप्रतिहतेन दुःखविधायिनेति ।।१७४।। दवसिदि भावसिदि अणुओगवियाणया विजाणंजा । ण खु उड्ढगमणकज्जे हेछिल्लपदं पसंसंति ॥ १७५।। दव्वसिदि भावसिदि अणुओगवियाणया विजाणंता' इत्यस्मिन्सूत्रे पदघटना । 'उड्ढगमणकज्जे हेट्ठिलपवं ण खु पसंसंति' इति । ऊर्ध्वगमने कार्य अधोधःपादनिक्षेपं नैव प्रशंसन्ति । 'विजाणता' विशेषेण जानन्तः । कां 'दव्वसिदि भावसिदि' च द्रव्यभावश्रियोः स्वरूपं उपादेयश्रितिज्ञा' इति यावत् । न केवलं नितिमात्रज्ञाः किन्तु 'अणुओगवियाणया' अनुयोगशब्दः सामान्यवचनोऽपि इह चरणानुयोगवृत्तिर्गहीतस्तेनायमर्थः आचाराङ्गज्ञाः अथवा चतुर्विधानुयोगज्ञाः श्रुतमाहात्म्यवन्तः न प्रशंसन्ति । एतदुक्तं भवति-शुभपरिणामवतां तदतिशय एव प्रवर्तितव्यं, न जघन्यपरिणामप्रवाहे निपतितव्यं, यतोऽतिशयितश्रुतज्ञानलोचना यतयो निन्दति जघन्यपरिणामान् । कुतो ? मन्दायमानशुभपरिणामः क्रमेण न बहलविशालकर्मतिमिरमपाकर्तुमर्हति नाशाभिमखः प्रदीप इव । यथा नाशसन्मुखः प्रदीपोऽतितेजसा प्रवर्तमानो मन्दं मन्दं ज्वलन्नाशमपैति शनैः शनस्तमसाच्छाद्यते तथा मन्दायमानपरिणामोऽपीत्यर्थः । अशुभपरिणामसन्ततेमुलं भवति । तेन कर्मणां स्थितिरनुभवश्च प्रकर्षमुपैति ततो व्यवस्थिता सैव दीर्घसंसारिता । समीचीनज्ञानमारुतप्रेरितः शुभपरि गा०-टो०--इस सुलभ, असार, अपवित्र, कृतघ्न, भाररूप, रोगोंका घर और जन्म मरणसे युक्त, दुःखदायी शरीरसे क्या लाभ ऐसा विचार साधु शरीरसे निस्पृह होकर सल्लेखना धारण करता है और बैठना, सोना, भोजन आदिकी सब सुख भावनाको छोड़ श्रद्धानादि परिणामोंका आश्रय लेता है ॥१७४॥ गा०-द्र व्यश्रितिके भावश्रितिके स्वरूपको विशेष रूपसे जानने वाले तथा आचारांगके ज्ञाता ऊर्ध्वगमन रूप कार्यमें नीचे पैर रखना प्रशंसनीय नहीं ही मानते ॥१७५॥ टी०-अनुयोग शब्द अनुयोग सामान्यका वाची होने पर भी यहाँ चरणानुयोगका वाचक ग्रहण किया है अतः उसका अर्थ आचारांगके ज्ञाता होता है। अथवा चार प्रकारके अनुयोगोंके ज्ञाता भी होता है । द्रव्यश्रितिके और भावश्रितिके स्वरूपको जानने वाले तथा चरणानुयोगके ज्ञाता ऊपर जानेके लिये नीचे-नीचे पैर रखना प्रशंसनीय नहीं मानते । आशय यह है कि शुभ परिणाम वालोंको शुभ परिणामोंकी उत्कृष्टतामें ही लगना चाहिये, जघन्य परिणामोंके प्रवाहमें नहीं गिरना चाहिये। क्योंकि अतिशय युक्त श्रुतज्ञान रूपी चक्षुसे सम्पन्न यतिगण जघन्य परिणामों की निन्दा करते हैं। क्योंकि जिसके शुभ परिणाम उत्तरोत्तर मन्द होते जाते हैं वह घने विशाल कर्मरूपी अन्धकारको नाशके अभिमुख दीपककी तरह दूर नहीं कर सकता। जैसे बुझता हुआ दीपक तीव्र प्रकाश देता है किन्तु मन्द-मन्द जलकर बुझ जाता है और धीरे-धीरे अन्धकारसे ढक जाता है। उसी तरह मन्द होता हुआ शुभ परिणाम भी अशुभ परिणामोंकी परम्पराका जनक होता है और उससे कर्मोंकी स्थिति और अनुभाग उत्तरोत्तर बढ़ता है। उससे वही दीर्घ संसारि १. ज्ञाना इति आ० मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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