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________________ विजयोदया टीका ५८५ प्रकृष्टया गृहीतो हा मम क्लेशशतं कुर्वतोऽपि मम धनं न भवति, जातं वा नष्टमिति कृतहाहाकारः क्लिश्यति ।।११६०॥ एदेसिं दोसाणं मुचइ गंथजहणेण सव्वेसिं । तविवरीया य गुणा लभदि य गंथस्स जहणेण ।।११६१॥ 'एदेसि दोसाणं मुंचई' पूर्वोक्तान्परिग्रहग्रहणगतान्दोषानशेषांस्त्यजेदिति दोषप्रतिपक्षभूतान्गुणानपि लभते ।।११६१।। गंथच्चाओ इंदियणिवारणे अंकुसो व हथिस्स । णयरस्स खाइया वि य इंदियगुत्ती असंगत्तं ।।११६२।। 'गंथच्चाओ' ग्रन्थत्यागः। 'इंदियनिवारणे' इत्ययमिन्द्रियशब्द उपयोगेन्द्रियविषयः सप्तमी च निमित्तलक्षणा। तेनायमर्थः-इन्द्रि यज्ञानस्य रागद्वेषमूलस्य निवारणे निमित्तभूतोंऽकुश इव हस्तिनो निवारणे उत्पथयानात् । 'नगरस्स खादिगा वि य' नगरस्य खातिका इव । 'असंगत्तं' निष्परिग्रहता। 'इंदियगुत्तो' इन्द्रियगुप्तिरिन्द्रियरक्षा रागोत्पत्तिनिमित्तेन्द्रियज्ञानरक्षा ॥११६२॥ सप्पबहुलम्मि रणे अमंतविज्जोसहो जहा पुरिसो । होइ दढमप्पमत्तो तह णिग्गंथो वि विसएसु ॥११६३।। 'सप्पबहुलम्मि' सर्पबहले । 'रणे' अरण्ये । 'अमंतविज्जोसहो' मन्त्रेण, विद्यया औषधेन च रहितः पुमान् । 'दढमप्पमत्तो होदि' नितरां अप्रमत्तो भवति । तथा निर्ग्रन्थोऽपि क्षायिकश्रद्धानकेवलज्ञानयथाख्यात वशीभूत हो तृष्णामें पड़कर हाहाकार करता है कि इतना कष्ट उठानेपर भी मुझे धनकी प्राप्ति नहीं होती या प्राप्त हुआ धन भी नष्ट हो गया । और इस प्रकार दुःखी होता है ॥११६०।। __गा०-परिग्रहका त्याग करनेसे ये सब दोष नहीं होते। तथा इनके विपरीत गुणोंकी प्राप्ति होती है ।।११६१॥ गा०-टी०- 'इंदियणिवारणे' में आये इन्द्रिय शब्दका अर्थ उपयोगरूप इन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियजन्यज्ञान है । तथा सप्तमी विभक्तिका अर्थ निमित्त है । अतः उसका अर्थ होता है परिग्रहका त्याग इन्द्रियज्ञानको रोकने में निमित्त है जैसे अंकुश हाथीको रोकने में निमित्त है। अर्थात् जैसे अंकुश हाथीको उन्मार्गपर जानेसे रोकता है वैसे ही परिग्रहका त्याग इन्द्रियोंको विषयों में जानेसे रोकता है। इन्द्रियाँ ही रागद्वेषकी मूल हैं। अथवा जैसे खाई नगरको रक्षा करती है वैसे ही परिग्रहका त्याग रागकी उत्पत्तिमें निमित्त इन्द्रियोंसे रक्षा करता है ॥११६२॥ गा०-टो०-जैसे मंत्र, विद्या और औषधीसे रहित पुरुष साँसे भरे जंगल में अत्यन्त सावधान रहता है। वैसे ही निर्ग्रन्थ साधु भी जो क्षायिक सम्यग्दर्शन केवलज्ञान और यथाख्यात १. तथा निर्ग्रन्थोऽपि विषयेष्वप्रमत्तो भवति इन्द्रियजयो अप्रमत्तताया उपायः अपरिग्रहतापीत्यनेन गाथाद्वयेनाख्यातं -ज० । ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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