SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका २२९ प्रतिपद्यते । ज्ञानभावनापरो ज्ञानपरिणतो भवत् कथमसौ दर्शनादौ परिणामान्तरे प्रवृत्तो भवति ? न हि क्रोधपरिणतो मायायां प्रवृत्तो भवतीति चेन्नैष दोषः । यद्यान्नन्तरीयक तस्मिन्सति तद्भवत्येव तदधिकरणे यथा कृतकत्वेऽनित्यत्वं । ज्ञानं चान्तरेण न भवन्ति सम्यग्दर्शनादयः । अत्रेदं चोद्यं-असंयतसम्यग्दृष्टेरस्ति ज्ञानं तस्य तपःसंयमौ किमुत स्तः ? संयमसद्भावे कथमसंयतता? तस्मान्न तौ स्तः । कथमिदं सूत्रं ? नायमस्य सूत्रस्यार्थो ज्ञानभावनायां सत्यां भवत्येव सर्व एव इति, किन्तु ज्ञानभावनायां सत्यामेव भवन्ति नासत्याम् । तपःसंयमौ कार्यत्वेन स्थितौ चारित्रमोहक्षयोपशमविशेषसहायापेक्षिणा ज्ञानेन प्रवत्येते, न चावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति । धूममजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात काष्ठाद्यपेक्षस्य । 'तो' ततः ज्ञानभावनातः । 'उवओगपदिण्णां' ज्ञानदर्शनतपःसंयमपरिणामप्रबन्धे प्रवर्तयाम्यात्मानं इति या उपयोगप्रतिज्ञा तां । 'सह' अक्लेशेन । 'समादि' समापयति । 'अच्चविदो' अचलितः ॥१९६।। जदणाए जोग्गपरिभाविदस्स जिणवयणमणुगदमणस्स । सदिलोवं कादं जे ण चयंति परीसहा ताहे ॥१९७।। 'जदणाए' यत्नेन । 'जोग्गपरिभाविदस्स' युज्यते अनेन अनशनादिना निर्जराथं यतिरिति बाह्यं तपः संयमरूप परिणतिको प्राप्त होता है। . शंका-जो ज्ञानभावनामें लीन है वह ज्ञानरूप परिणत होता है किन्तु वह दर्शन आदि अन्य परिणामरूप परिणत कैसे हो सकता है ? जो क्रोध रूपसे परिणत है वह मायारूपसे परिणत नहीं हो सकता? : समाधान-यह दोष उचित नहीं है। जो जिसके विना नहीं होता वह उसके होनेपर अवश्य होता है। जैसे जो बनाया हुआ है वह अनित्य अवश्य है। ज्ञानके विना सम्यग्दर्शन आदि नहीं होते। शंका-यहाँ यह तर्क होता है कि असंयत सम्यग्दृष्टीके ज्ञान है तब क्या उसके तप और संयम है ? यदि संयम है तो वह असंयत कैसे है ? अतः उसके तप और संयम नहीं हैं ? तब यह सूत्रगाथा कैसे ठीक है ? समाधान-इस सूत्रगाथाका यह अर्थ नहीं है कि ज्ञानभावनाके होनेपर सब तप संयम आदि होते ही हैं। किन्तु ज्ञानभावनाके होनेपर ही होते हैं, उसके अभावमें नहीं होते। तप और संयम कार्य है अतः चारित्रमोहके क्षयोपशम विशेषकी अपेक्षा सहित ज्ञानके होनेपर होते हैं। कारणके होनेपर कार्य अवश्य होता ही है ऐसा नियम नहीं है। काष्ठ आदिकी आग बिना घूमके भी देखी जाती है। ज्ञानभावनासे उपयोग प्रतिज्ञाको बिना क्लेशके अचल होकर समाप्त करता है—पूर्ण करता है । 'मैं ज्ञान दर्शन तप संयमरूप परिणामोंमें अपनेको प्रवृत्त करता हूं' यह उपयोग प्रतिज्ञा है ॥१९६|| गा०-तब यत्नसे अपनेको तपसे भावित करनेवालेके तथा जिनागमके अनुगत चित्तवालेके स्मृतिका लोप करनेमें परीषह समर्थ नहीं होती ॥१९७।। ट्री०-यति निर्जराके लिए इस अनशन आदिसे 'युज्यते' युक्त होता है वह योग है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy