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________________ २३० भगवती आराधना योगशब्देनारोच्यते । तेनायमर्थः । तपसा भावितस्येति । 'जिणवयणमणुगदमणस्स' जिनवचनानुगतचेतसः । 'सदिलोवं' स्मृतिलोपं । रत्नत्रयपरिणामप्रवन्धसम्पादनोद्योगस्य स्मृतिर्या तस्या विनाशं । 'काउंजे' कतु । 'न चयंति' न शक्नवन्ति । के ? परिस्सहा' क्षुदादिवेदनाः । 'ताहे' तदा । एतदुक्तमनया गाथया-अभ्यस्यमानं श्रुतज्ञानं निर्मलं पटोयो भवति । पाटवाभ्यासबलेन च स्मृतिरखे देन प्रवर्तते । स्मृतिमलो हि योगो वाक्कायव्यापार इति । सुदं गदं ॥१९७।।। सत्वभावनाया गुणं स्तौति उत्तरगाथया देवेहिं भीसिदो वि हु कयावराधो व भीमरूवेहिं । तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिब्भओ सयलं ।।१९८॥ बहुसो वि जुद्धभावणाय ण भडो हु मुज्झदि रणम्मि । तह सत्तभावणाए ण मुज्झदि मुणी वि उवसग्गे ॥१९९।। 'देवेहि' देवस्त्रासितोऽपि । खु स्फुटं । कृतापराधोऽपि भीमरूपैः । वा अथवा । तो ततः । सत्वभावनया सोढदुःखात् । 'वहई भरं णिब्भओ सयलं' वहति भरं संयमस्य निर्भयः सकलं । मतेर्भीमरूपदर्शनाच्च भीतिरुपजायते । भीतस्य प्रच्युतरत्नत्रयस्य तदतिदुरवापं । तदनवाप्त्या न कर्म निमूर्लनं शक्यं कत्तु। अनाव्युत्पत्तिके अनुसार यहाँ योग शब्दसे बाह्य तप कहा है । अतः 'जोग्गपरिभाविदस्स' का अर्थ तपसे भावित होता है। जो यत्नपूर्वक तप करता है और अपने चित्तको जिनागमका अनुसारी बनाता है उसकी स्मृतिका-अर्थात् रत्नत्रयरूप परिणामोंके प्रबन्ध सम्पादनमें उद्योग करनेकी जो उसकी स्मति है कि मुझे रत्नत्रयरूप परिणामोंको सम्पन्न करने में उद्योग करना है उस स्मृतिक लोप परीषह नहीं कर सकतीं। इस गाथासे यह कहा है कि सतत अभ्यास करनेसे श्र तज्ञाना निर्मल और प्रबल होता है। प्रबल अभ्यासके बलसे स्मति विना खेदके अपना काम करती है। योग अर्थात् वचन और कायके व्यापारका मूल स्मृति है ।।१९७|| श्रुतभावनाका कथन समाप्त हुआ। आगेकी गाथासे सत्त्वभावनाके गुणका कथन करते हैं गा०-देवोंके द्वारा पीड़ित किया गया भी अथवा भयंकर जीवोंके द्वारा सताया गया यति सत्त्वभावनाके द्वारा दुःख सहन करनेसे निडर होकर संयमके समस्त भारको वहन करता है ।।१९८॥ टो०-मरणसे और भयंकररूपके देखनेसे भय उत्पन्न होता है। डरकर यदि रत्नत्रयको छोड़ बैठा तो पुनः उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है। और रत्नत्रयको प्राप्त किये विना कर्मका निर्मूलन करना शक्य नहीं है। तथा कर्मोंका विनाश न होनेपर वे आत्माको नाना प्रकारके कष्ट देते हैं। इसलिए भय ही अनेक अनर्थोंका मूल है ऐसा निश्चय करके सबसे पहले भयको ही भगाना चाहिए ॥१९८॥ गा०–अनेक प्रकारकी भी युद्ध सम्बन्धी भावनासे जैसे योद्धा युद्ध में नहीं ही मोहित होता अर्थात् युद्धसे नहीं डरता। वैसे ही मुनि भी सत्त्वभावनासे उपसर्ग आनेपर मोहित नहीं होता ॥१९९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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