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________________ विजयोदया टीका ५१ उच्यन्ते । अन्तरेण चशब्दं समुच्चयार्थगतिः। तत्रायं संबन्धः-जिनवचने च किं? सप्तदशमरणानि । एतेन तीर्थकृतो गणधराश्च मरणविकल्पानुपपादितवन्तः । तदुभयवचन सिद्धं प्रमाणमविशङ्कनीयमित्येतदाचष्टे १. आवीचिमरणं २. तद्भवमरणं ३. अवधिमरणं ४. आदिअंतायं ५. बालमरणं ६. पंडितमरणं ७. आसण्णमरणं ८. बालपंडिदं ९. ससल्लमरणं १०. बलायमरणं ११. वसट्टमरणं १२. विप्पाणसमरणं १३. गिद्धपुट्ठमरणं १४. भत्तपच्चक्खाणं १५. पाउवगमणमरणं १६. इंगिणीमरणं १७. केवलिमरणं चेति । एतेषां स्वरूपता यथागमं संक्षेपतो निरूप्यते ॥ वीचिशब्दस्तरंगाभिधायी इह तु वीचिरिव वीचिरिति आयुष उदये वर्तते । यथा समुद्रादी वीचयो नरन्तर्येणोद्गच्छन्ति एवं क्रमेण आयुष्काख्यं कर्म अनुसमयमुदेति इति तदुदय आवीचिशब्देन भण्यते । आयुषः अनुभवनं जीवितं, तच्च प्रतिसमयं जीवितभंगस्य मरणं । अतो मरणमपि अत्र आवीचि, उदयादनन्तरसमये मरणमपि वर्तते इति । तत्पनरावीचिकामरणं अनादिसनिधनं भव्यानाम । नन च सिद्धानामेव मरणं विच्छित्तिमुपयान्ति नेतरेषां ते च न भव्याः । भविष्यत्सिद्धत्वपर्याया हि भव्याः । सिद्धास्त्वधिगतसिद्धत्वपर्यायास्ततः किमुच्यते भव्यानामनादिसनिधनमिति । 'भवियाणमणादियं मरणं आवीचिग सणिधणं च' इति यदेवाधिगतभव्यत्वपर्यायं द्रव्यं तदेवेदमिति कृत्वा भन्यानामित्युक्तं इति नियतम् । अभव्यानां पुनरुदयं प्रति सामान्या समाधान-इसमें कोई दोष नहीं है। यहाँ जिनशब्दसे गणधर कहे गये हैं। 'च' शब्दके विना भी समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान होता है। अतः ऐसा सम्बन्ध लेना और जिनवचनमें सतरह मरण कहे हैं। इससे यह बोध होता है कि तीर्थङ्करों और गणधरोंने मरणके भेद कहे हैं। अतः उन दोनोंके वचनोंसे सिद्ध होनेसे प्रमाण है उसमें किसी प्रकार शङ्का नहीं करना चाहिए। वे हैं-१. आवीचिमरण, २. तद्भवमरण, ३. अवधिमरण, ४. आदि अन्तमरण, ५. बालमरण, ६. पंडितमरण, ७. आसण्णमरण, ८. बालपंडितमरण, ९. ससल्लमरण, १०. बलायमरण, ११. वसट्टमरण, १२. विप्पाणसमरण, १३. गिद्धपुट्ठमरण, १४. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५. प्रायोपगमन मरण, १६. इंगिणीमरण और १७. केवलीमरण । उनका स्वरूप आगमके अनुसार संक्षेपसे कहते हैं-वीचीशब्द तरंगको कहता है। किन्तु यहाँ 'वीचिके समान ऐसा अर्थ करनेसे वीचीका अर्थआयुका उदय है। जैसे समुद्र वगैरहमें तरंगे निरन्तर उठा करती हैं उसी प्रकार क्रमसे आयुनामक कर्म प्रतिसमय उदयमें आता है इसलिए उसके उदयको आवीचि शब्दसे कहा है। आयुके अनुभवनको जीवन कहते हैं। वह प्रतिसमय होता है। उसका भंग मरण है । अतः जीवनकी तरह मरण भी आवीची है क्योंकि आयुका उदय प्रतिसमय होता है अतः प्रत्येक अनन्तर समयमें मरण भी होता है। उसी प्रति समय होनेवाले मरणको आवीचिमरण कहते हैं। वह भव्यजीवोंके अनादिसान्त है। शङ्का-सिद्धोंके ही मरणका अन्त होता है, दूसरोंके नहीं। किन्तु सिद्ध भव्य नहीं हैं। जिनकी भविष्यमें सिद्धपर्याय होनेवाली हैं उन्हें भव्य कहते हैं। सिद्ध तो सिद्धपर्याय प्राप्तकर चुके हैं । तब कैसे कहते है कि भव्यजीवोंका मरण अनादिसान्त है ? समाधान-ऐसा कहा है कि भव्योंका आवीचिमरण अनादि और सान्त है। अतः जो द्रव्य भव्यत्वपर्यायको प्राप्त था वही यह है ऐसा मानकर भव्योंके अनादिसान्त मरण कहा है ऐसा निश्चित है। अभव्यजीवोंके सामान्य अपेक्षासे आयुका उदय बराबर रहता है अतः उनका आवीचिमरण अनादिनिधन है। किन्तु भवकी अपेक्षा और क्षेत्रादिकी अपेक्षा सादि है। चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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