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________________ ३३२ भगवती आराधना हरणं नामप्रतिक्रमणं । असंयतमिथ्यादृष्टिजीवप्रतिबिंबपूजादिषु प्रवृत्तस्य तत्प्रतिक्रमणं स्थापनाप्रतिक्रमणं । सचित्तमचित्तं मिश्रमिति त्रिविकल्पं द्रव्यं तस्य परिहरणं द्रव्यप्रतिक्रमणं । त्रसस्थावरबहलस्य स्वाध्यायध्यानविघ्नसंपादनपरस्य वा परिहरणं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । संध्यास्वाध्यायाकालादिषु गमनागमनादिपरिहारः कालप्रतिक्रमणं । मिथ्यात्वासंयमकषाययोगेभ्यो निवृत्तिर्भावप्रतिक्रमणं । प्रतिक्रमणसहितो धर्मः आद्यपाश्चात्ययोजिनयोः जातापराधप्रतिक्रमणं मध्यवतिनो जिना उपदिशन्ति ।' 'आलोयणादिवसिग राविग इत्तिरियभिक्खचरियाय। पक्खिय चाउम्मासिय संवच्छर उत्तमद्वेय ॥ एते आलोचनाकल्पाः ।' पडिकमणं रादिग देवसिगं इत्तिरियभिक्खचरिया य । पक्खिय चाउम्मासिय संवच्छर उत्तमठ्ठय य॥ [ ] अमी प्रतिक्रमणभेदा आद्यन्ततीर्थकरप्रणीते पंचयमे धर्मे, इतरत्र च चतुर्यमें प्रतिक्रमणस्य कालनियम उक्तः । यदायमतिचारं प्राप्तस्तदा प्रतिक्रमणमध्यात्मिकं दर्शनं । उक्तं च 'खमगो याणेसणो विय दूरायादो य सम्वसमणो वि । सुमणे वि यदि य सदो जागरमाणो वि अगदो वि ॥ ठावाणिओ आयरियं गावज्जामित्ति मज्झिमजिणेसु । ण पडिक्कमयं तेण दु जे णातिक्कमदि सो व ॥ [ ] प्रकारका प्रतिक्रमण होता है। भट्टिणी, भतृ दारिका इत्यादि अयोग्य नामका उच्चारण करनेपर उसका परिहार करना नाम प्रतिक्रमण है। असंयत मिथ्यादृष्टि जीवके प्रतिबिम्बकी पूजा आदि करनेवाला जो उसका प्रतिक्रमण करता है वह स्थापना प्रतिक्रमण है। सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका द्रव्य होता है उसका परिहार द्रव्य प्रतिक्रमण है। जो क्षेत्र त्रस और स्थावर जोवोंसे भरा है, स्वाध्याय और ध्यान में विघ्न करनेवाला है उसका परिहार क्षेत्र प्रतिक्रमण है। सन्ध्याके समय, स्वाध्यायके समय तथा असमयमें गमन आगमन आदिका परिहारकालप्रतिक्रमण है। मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योगसे निवृत्ति भावप्रतिक्रमण है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरका धर्म प्रतिक्रमण सहित है अर्थात् प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। और मध्यके बाईस तीर्थ कर दोष लगनेपर ही प्रतिक्रमणका उपदेश करते हैं। आलोचना दैवसिक, रात्रिक, इत्तिरिय, भिक्षाचर्या, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सावत्सरिक, उत्तमार्थ-ये दस आलोचनाकल्प हैं। दैवसिक प्रतिक्रमण, रात्रिक प्रतिक्रमण, इत्तिरिय, भिक्षाचर्या, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ ये प्रतिक्रमणके भेद हैं । आदि और अन्तिम तीर्थकरके द्वारा कहे पाँच महाव्रतरूप धर्ममें और अन्य तीर्थंकरोंके द्वारा कहे चार यमरूप धर्ममें प्रतिक्रमणके कालका नियम कहा है । जब साधु अतिचार लगाता है तब प्रतिक्रमण आध्यात्मिक दर्शन है । कहा है [इन गाथाओंका शुद्धपाठ न मिलनेसे अर्थका स्पष्टीकरण नहीं हो सका हैं ।। चौबीस तीर्थकरोंमेंसे मध्यके बाईस तीर्थंकरोंके साधुओंके लिए प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं है। दोष १. पडिकमणं देवसि राइरं च इत्तरिअभावकहियं च । पक्खिअ चाउम्मासिअ संवच्छरि उत्तमद्वेअ ।।-आव० ४ अ० । (अभि० रा०, पडिक्क०) २. सुमिणतियं दियसर्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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