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________________ ४८० भगवती आराधना 'तेण एकम्मि वि जम्मि पवे' यस्मिन्नेकस्मिन्नपि पदे युक्तः । 'संवेगं गच्छदि' रत्नत्रये श्रद्धामुपैति । 'अभिक्रवं' पुनः पुनः । 'त' तत्पदं । 'मरणंते' शरीराद्वियोगकाले । 'ण मोत्तव्वं' न मोक्तव्यं । णाणुवंओग इत्येतद्वयाख्यातं । णाणं गदं ॥७७४॥ पञ्चमहव्वदरक्खा इत्येतद्वयाचिंख्यासुराद्यमहिंसाव्रतं पालयेति कथयति परिहर छज्जीवणिकायवहं मणवयणकायजोगेहिं । जावज्जीवं कदकारिदाणुमोदेहिं उवजुत्तो ।।७७५।। 'परिहर छज्जीवणिकायवह' षण्णां जीवनिकायानां वधं मा कृथा मनोवाक्काययोगैः प्रत्येक कृतकारितानुमतविकल्पैः । कालप्रमाणमाह-'जावज्जीव' यावज्जीवं । सर्वजीवविषयसर्वप्रकारहिंसापरिहाररूपत्वात् सर्वस्मिन्नेव भवपर्यायकाले प्रवृत्तत्वादहिंसाव्रतस्य महत्ता निवेदिता। 'छज्जीवणिकाय' इत्यत्र व्यक्तयो जीवनिकायानां परिगृहीताः । 'मणवयणकायजोगेहि कदकारिदाणुमोदेहि इत्यनेन हिंसाविकल्पा: संग्रहीताः । 'जावज्जीवमित्यनेन निरवशेषमनुजजीवितकालग्रहणं । 'उवजुत्तो समिदीसु' इति शेष उपयुक्तः समितिषु समाहितचित्तः । इह वा सावज्जकिरियापरिहारे इति शेषः । सावद्यक्रियापरिहारप्रणिहितचित्तः।।७७५।। जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिपि जाण जीवाणं । एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवेसु होदि सदा ॥७७६॥ 'जह ते ण पियं दुःवं' यथा तव न प्रियं दुःखं । 'तधेव तेसि पि जीवाणं दुःखां न पियंत्ति' तथैव तेषामपि जीवानां न दुःखं प्रियमिति । 'जाण' जानीहि । 'एवं गच्चा' एवं ज्ञात्वा । अप्पोवमिवो आत्मोपमानः । 'सदा होहि जीवेसु' सदा भव जीवेसु । परजीवदुःखाप्रियो भवेति यावत ।।७७६॥ गा०-अतः जिस एक भी पदमें मन लगानेसे मनुष्यमें रत्नत्रयके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती हैं उस पदको बार-बार विचारना चाहिये और मरते समय भी नहीं छोड़ना चाहिये ।।७७४॥ __ 'पंच महाव्रत रक्षा' का व्याख्यान करनेके इच्छुक ग्रन्थकार अहिंसावतके पालनका कथन करते हैं गा०-टी-मन वचन काय और उनमें से प्रत्येकके कृत कारित और अनुमत भेदोंके साथ छह कायके जीवों की हिंसा जीवन पर्यन्त मत करो। क्योंकि सब जीवोंको सब प्रकारकी हिंसाका त्याग अहिंसा महावत है सभी भवोंमें इसका पालन करना, आवश्यक है। इससे अहिंसावतकी महत्ता सूचित की है । 'छह जीव निकाय' पदसे जोव निकायोंके सब जोवोंका ग्रहण किया है। मन वचन काय और कृत कारित, अनुमोदनासे हिंसाके भेदोंका ग्रहण किया है अर्थात् हिंसा नौ प्रकार से होती है, 'यावज्जीवन' पदसे मनुष्यका सम्पूर्ण जीवन काल ग्रहण किया है। 'उपयुक्त' पदसे समितियों में सावधान चित्त व्यक्तिका ग्रहण किया है । जो व्यक्ति सावध कार्यों के परिहारमें दत्तचित्त है वही जीवन पर्यन्त छह काय के सब जीवोंको मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से हिंसा नहीं करता ।।७७५॥ गा०-जैसे तुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही उन जीवोंको भी दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा जानकर अपनी ही तरह सदा जीवोंमें व्यवहार करो अर्थात् किसी को दुःख मत दो ॥७७६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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