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________________ ८० भगवती आराधना जाते संविग्नः पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोढुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासत्युपाये सावधकरणभीरुः विराधनमरणभीरुश्च एतस्मिन् कारणे जाते कालेऽमुष्मिन् किं भवेत्कुशल मिति गणयतो यधुपसर्गभयत्रासितः संयमादभ्रश्यामि ततः संयमभ्रष्टो दर्शनादपि न वेदनामसंक्लिष्ट: सोढ़ उत्सहेत ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चितमतिनिर्मायश्चरणदर्शनविशुद्धः, धृतिमान्, ज्ञानसहायोऽनिदानः, अर्हदन्तिके, आलोचनामासाद्य कृतशुद्धिः, सुलेश्यः प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विापाणसं मरणमुच्यते ! शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तद्गिद्धपुट्ठमित्युच्यते । मरणविकल्पसंभवप्रदर्शनमिदं सर्वत्र कर्तव्यतयोपदिश्यते । प्रायोपगपनर्मिगिणीमरणं भक्तप्रत्याख्यानं इत्येतान्येवोत्तमानि पूर्वपुरुषैः प्रवर्तितानि । एवं दिङ्मात्रेण पूर्वागमानुसारि सप्तदशमरणव्याख्यानमत्रोपक्रान्तम् । एतेषु सप्तदशसु पंच मरणानि इह संक्षेपतो निरूपयिष्यामीति प्रतिज्ञानेन कृता । कानि तानि पंच मरणानि इत्याशंकायां नामनिर्देशार्थ गाथा पंडितपंडितमरणमित्यादिका पंडिदपंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव ।। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ।। २६ ।। ननु भवपर्यायप्रलयो मरणमिति यदि गृह्यते तस्य को भेदो भवपर्यायस्य अनेकत्वात् मरणं तद्विनाशः कथं न भिद्यते इति । मनुष्ये पंचप्रकारतानुपपन्ना अनंतत्वात् एकजीवगतस्यापि भवपर्यायस्य नानाजीवापेक्षायां व्रतका विनाश आदि दूषण चारित्रमें होनेपर संसारसे विरक्त और पापसे डरनेवाला साधु कर्मोंका उदय उपस्थित जानकर उसे सहने में असमर्थ होनेसे उससे निकलनेका उपाय न होनेपर पापकर्म करनेसे डरता हुआ, साथ ही विराधनापूर्वक मरणसे डरता हुआ विचारता है इस कालमें इस प्रकारके कारण उपस्थित होनेपर कैसे कुशल रह सकती है, यदि उपसर्गके भयसे डरकर संयमसे भ्रष्ट होता हूँ तो संयमसे भी भ्रष्ट और दर्शनसे भी भ्रष्ट होता हूँ। और बिना संक्लेशके वेदनाको सहन कर नहीं सकता। तब मैं रत्नत्रयके आराधनसे डिग जाऊँगा, ऐसी निश्चित मति करके सम्यक्त्व और चारित्रमें विशुद्ध, धैर्यशाली, ज्ञानसे सहायता लेनेवाला वह साधु किसी निदानके विना अर्हन्तके पासमें आलोचना प्रायश्चित्त लेकर शुभलेश्यापूर्वक श्वासोच्छ्वासका निरोध करता है। उसे विप्पणास मरण कहते हैं। और शस्त्रग्रहणसे होनेवाले मरणको गिद्धपुट्ठ कहते हैं। ___ मरणके भेदोंका यह प्रदर्शन सर्वत्र कर्तव्यरूपसे किया जाता है । किन्तु प्रायोपगमन, इंगिणीमरण और भक्तप्रत्याख्यान ये तीन ही मरण उत्तम हैं, पूर्व पुरुषोंने इनका पालन किया है। इस प्रकार संक्षेपसे पूर्व आगमके अनुसार सतरह मरणोंका व्याख्यान यहाँ किया ॥२५।। ___ इन सतरहमें से पाँच मरणोंको यहाँ संक्षेपसे कहूँगा ऐसी प्रतिज्ञा ऊपर की है। वे मरण कान ह एसा शका करने पर उनका नाम निर्देश करने के लिए गाथा कहते हैं गाथा-पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण, बाल पण्डितमरण, चौथा बालमरण और पांचवा वाल वालमरण, ये पांच मरण है। टोका-शंका-यदि भवपर्यायके विनाशको मरण कहते हो तो उसका भेद कैसा ? भवपर्याय तो अनेक हैं और उनका विनाश मरण है तब मरणके भेद उतने क्यों नहीं होंगे। अत: मनुष्यमें मरणके पाँच प्रकार ठीक नहीं है । एक जीव की भी भवपर्याय अनन्त होती हैं तब नाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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