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________________ ३७० भगवती आराधना परिणमते' निराकृतदोषो गुणे वाऽपरिणतो कथमाराधकः स्यादाराधनार्थमायातोऽप्यसत्यवपीडके । उप्पीलत्ति गदं॥४८६॥ तम्हा गणिणा उप्पीलणेण खवयस्स सव्वदोसाहु । ते उग्गालेदव्वा तस्सेव हिदं तया चेव ॥४८७॥ उप्पीलओत्ति गदं । एवं अवपीडकतां व्याख्यायावसरप्राप्तामपरिश्रावितां व्याचष्टे लोहेण पीदमुदयं व जस्स आलोचिदा अदीचारा । ण परिस्सवंति अण्णत्तो सो अप्परिस्सवो होदि ॥४८८॥ 'लोहेण पोदमुदगं व' एवमत्र पदसंबन्धः । 'जस्स आलोइदा दोसा ण परिस्सवन्ति अण्णत्तो' यस्मै कथिता दोषा न परिस्रवन्त्यन्यतः । किमिव 'लोहेण पोदमुदगंव' लोहेन संतप्तेन पीतमिवोदकं । 'सो' सः । एवंभूतोऽपरिस्सवो होदि अपरिस्रावो भवति ॥४८८॥ दसणणाणादिचारे वदादिचारे तवादिचारे य । देसच्चाए विविधे सव्वच्चाए य आवण्णो ॥४८९॥ दसणणाणाविचारे य बदाविचारे' श्रद्धानस्यातिचारः शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः, ज्ञानस्य अतिचाराः अकाले पठनं, श्रुतस्य श्रृतधरस्य वा विनयाकरणं अनुयोगादीनां ग्रहणे तत्प्रायोग्यावग्रहाग्रहणं, उपाध्याय निह्नवः, व्यञ्जनानां न्यूनताकरणं, आधिक्यकरणं, अर्थस्य अन्यथाकथनं वा । तपसोऽनशनागुणमें लगे विना आराधक कैसे हो सकता है ? आराधनाके लिए गुरुके पास आकर भी यदि गुरु अवपीडक न हो तो उक्त बात नहीं बन सकती है ॥४८६।। गा०-इसलिए उत्पीडक आचार्यको क्षपकके सब दोष उगलवाना चाहिए। क्योंकि क्षपकका हित इसीमें है ॥४८७।। उत्पीड़क गुणका कथन समाप्त हुआ। इस प्रकार अवपीडक गुणका व्याख्यान करके अवसर प्राप्त अपरिश्रावी गुणको कहते हैं गा०-जैसे तपाये हुए लोहेके द्वारा पिया गया जल बाहर नहीं जाता वैसे ही जिस आचार्यसे कहे गए दोष अन्य मुनियोंपर प्रकट नहीं होते, वह आचार्य अपरिस्राव गुणसे युक्त होता है ॥४८८॥ गा-किसीके सम्यग्दर्शनमें अतिचार लगा हो, अथवा ज्ञानमें अतिचार लगा हो, या व्रतोंमें अतिचार लगा हो, या तपमें अतिचार लगा हो, यह एकदेशसे अथवा सर्वदेशसे अतिचार लगा हो तो ॥४८९॥ ____टो–सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा और संस्तव । ज्ञानके अतिचार हैं-असमयमें स्वाध्याय, श्रुत अथवा श्रुतके धारीकी विनय न करना, अनुयोग आदिको ग्रहण करने में उसके योग्य अवग्रह न करना, गुरुका नाम छिपाना, व्यंजन शब्द छोड़ जाना या अधिक जो उसमें नहीं हैं, बोलना, और अर्थका अन्यथा कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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