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________________ २८० भगवती आराधना प्राण्यहितस्य हन्तु प्रशमः सुदुर्लभः । यदैव च तस्य प्रशमोपलब्धिः पूर्वोक्तकर्मप्रशान्तौ तदैव श्रेयस्कृती शक्तिः पित्तोपशान्तो कार्यचित्ते च। इत्थं मृत्युव्याधयो राग इत्यते प्रत्यवाया जगति तांश्चेतसि कृत्वा, यदा ते न सन्ति तदोद्योगः कार्यः ॥३०५॥ सत्तीए भत्तीए विज्जावच्चुज्जदा सदा होह । आणाए णिज्जरित्ति य सबालउड्ढाउले गच्छे ॥३०६॥ 'सत्तीए भत्तीए' शक्त्या भक्त्या च । 'विज्जावच्चुज्जदा' वैयावृत्त्ये उद्यताः । 'सदा होह' नित्यं भवत । 'आणाए णिज्जरित्तिय' सर्वज्ञानामाज्ञा वैयावृत्त्यं कर्तव्यमिति तदाज्ञया हेतुभूतया, वैयावृत्त्यं हि तपः निर्जरा भवतीति च । 'सवालउढ्ढाउले' सह बालवर्धमाना ये वृद्धास्तैराकोणे गणे ॥३०६॥ वैयावृत्त्यं 'कर्तुमित्युक्तं तदिदमिति सेज्जागासणिसेज्जा उवधी पडिलेहणाउवग्गहिदे । आहारोसहवायणविकिंचणुव्बत्तणादीसु ॥३०७।। 'सेज्जागासणिसेज्जा उवधी पडिलेहणा उवगहिदे' शय्याकाशस्य, ‘निषद्यास्थानस्य, उपकरणानां . च प्रतिलेखना', उपग्रह उपकारः । किंविषयः ? 'आहारोसहवायणविकिंचणुव्वत्तणादीसु' योग्यस्य आहारस्य औषधस्य वा दानं स्वाध्यायोत्सारणं अशक्तस्य शरीरमलनिरासः । 'उवत्तणे' पार्वात्पान्तेिरस्योस्थापनं ॥३०७॥ अद्धाणतेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे । वेज्जावच्चं उत्तं संगहसारक्खणोवेदं ।।३०८।। 'अद्धाण तेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे' अध्वनां श्रमेण श्रान्तानां पादादिमनं । स्तेनरुपद्र्यकरनेके लिए प्रशमभाव दुर्लभ है। जैसे पित्तके शान्त होनेपर चित्त काममें लगता है वैसे ही जिस समय पूर्वोक्त कर्मका उपशम होनेपर प्रशमभावकी प्राप्ति होती है, उसी समय आत्मकल्याण करनेको शक्ति आती है। इस प्रकार संसारमें मृत्यु, व्याधि और राग ये बाधक हैं। उनको चित्तमें लाकर जब वे न हों तब तपमें उद्योग करना चाहिए ॥३०५॥ गा-बालमुनि और वृद्ध मुनियोंसे भरे हुए गणमें सर्वज्ञकी आज्ञासे सदा अपनी शक्ति और भवितसे वैयावृत्य करने में तत्पर रहो । सर्वज्ञदेवकी आज्ञा है कि वैयावृत्य करना चाहिये। वैयावृत्य तप है और तपसे निर्जरा होती है ॥३०६।। वैयावृत्य करनेके लिये कहा है । उस वैयावृत्य को बतलाते हैं गा०-सोनेके स्थान, बैठनेके स्थान और उपकरणोंकी प्रतिलेखना करना, योग्य आहार योग्य औषधका देना, स्वाध्याय कराना, अशक्त मुनिके शरीरका मल शोधन करना, एक करवट से दूसरी करवट लिटाना ये उपकार वैयावृत्य हैं ।।३०७।। गा०-जो मुनि मार्गके श्रमसे थक गये हैं उनके पैर आदि दबाना, जिन्हें चोरों ने सताया १. कर्तुमभ्युद्युक्तं प्रतीदमिति द-आ०, मु० । २. नाया उ-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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